मन मूरखा ! तैं योंही जन्म गँवायो, सांई केरी सेवा न कीन्हीं, इहि कलि काहे को आयो।। जिन बातन तेरो छूटिक नाँहीं हीं, सोइ मन तेरे भायो। कामी ह्वै विषया संग लागो, रोम रोम लपटायो॥॥
कुछ इक चेति विचारि देखो, कहा पाप जीय लायो। दादू दास भजन कर लीजे, स्वप्नै जग डहकायो॥॥ संतप्रवर श्रीदादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि रे मूर्ख मन ! तूने मानव जन्म विषय भोग में व्यर्थ ही खो दिया। कभी भी प्रभु का ध्यान नहीं किया तो फिर इस मनुष्य शरीर में क्यों आया था, विषय तो सब योनियों में सब को प्राप्त होते ही रहते है। यह मानव देह विषय-भोग के लिये तुझे नहीं मिला है किन्तु भगवान् के भजन के लिये ही मिला है। तू उन्हीं कर्मों में लगा हुआ है जो सदा दुःख के देने वाले हैं। कामी होकर विषयों में दिन रात आसक्त होकर स्त्री लम्पट हो रहा है। सावधान होकर कुछ विचार तो कर, कि मैं क्या कर रहा हूं ? अपने हृदय को विषयों की आशा में क्यों डुबो रहा है ? यह संसार तो स्वप्न के तुल्य मिथ्या है, इसमें ही तू क्यों भ्रम रहा है ? भगवान् का भजन कर, जिससे तुझे भगवान् की प्राप्ति हो जाय। तेरे लिये यह ही सत्य कर्म है। बाकी तो तुषों को कूटने के समान सब निष्फल है। श्रीमद्भागवत में लिखा है कि –यह मानव देह धर्म अर्थ काम और मोक्ष का देने वाला अनेक जन्मों के बाद तुझे प्राप्त हुआ है, जो अनित्य है। अतः इसको क्षणभंगुर मानकर बुद्धिमान् को चाहिये कि जब तक मृत्यु नहीं आती उससे पहले ही कल्याण के लिये यत्न कर लेना चाहिये क्योंकि ये विषय तो सब योनियों में सभी को प्राप्त होते रहते हैं।
वेदान्तसंदर्भ में लिखा है –यह नर तन बहुत दुर्लभ है, जिसमें सद् असत् का विवक किया जा सकता है। मनुष्य शरीर में भी पुरुषत्व बड़ा दुर्लभ है। अतः जो मानव इसको प्राप्त करके भी ऐहिक सुख के भोग में ही लगा रहता है उस अधम कुमति वाले पुरुष को धिक्कार है, क्योंकि खाते पीते आनन्द लेना यह तो सूकर, कूकर, खर आदि भी करते हैं । फिर मानव और सूकर, कूकर की क्रिया में क्या भेद है ? कुछ भी नहीं ।