आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गुरु पूर्णिमा की सार्थकता

AYUSH ANTIMA
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भारतीय सनातन संस्कृति में एकलव्य और द्रोणाचार्य गुरू शिष्य के रिश्ते की अटूट निष्ठा और समर्पण का प्रतीक है। एकलव्य निषाद राज का पुत्र था, द्रोणाचार्य को अपना गुरू मानकर उसने धनुर्विद्या सीखी थी। भले ही द्रोणाचार्य ने औपचारिक रूप से उसे शिष्य स्वीकार नहीं किया था। एकलव्य की गुरु भक्ति ने ही एकलव्य को महान धनुर्धर बनाया था। एकलव्य का यह प्रसंग हमारे सामने गुरू शिष्य का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसके साथ ही यह शिक्षा भी देता है कि सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरू का आशीर्वाद व मार्गदर्शन महत्वपूर्ण है। यह प्रसंग आज भी प्रासंगिक हैं कि छात्रों को अपने गुरू के प्रति निष्ठा व समर्पण भाव रखना चाहिए। गुरू पूर्णिमा सनातन धर्म में सम्मान और ज्ञान के प्रति आभार प्रकट करने का पर्व है। यह दिन महर्षि वेदव्यास की जयंती के रुप में भी मनाया जाता है, जिन्होंने वेदों का संकलन किया था। यह पर्व अध्यात्मिक जागरूकता व आत्मिक उन्नति का प्रतीक है। गुरू के शाब्दिक अर्थ को देखें तो गुरू शब्द में 'गु' का अर्थ है अंधकार और 'रु' का अर्थ है प्रकाश। अर्थात जो अज्ञान के अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फेलाये वहीं सच्चा गुरू हैं। गुरू सिर्फ हमें विषय का ज्ञान ही नहीं देता बल्कि समाज में जीने, नैतिकता, अनुशासन और आदर्शों के पाठ से रूबरु भी करवाता है। संस्कृत में माता, पिता, गुरू, दैवम के अनुसार पहला स्थान माता का, उसके बाद पिता का, गुरू व ईश्वर का आता है। आज के आधुनिक परिवेश में यदि माता, पिता, गुरू दैवम को देखें तो नैतिकता को भुलाकर माता पिता को वृध्दाश्रम में छोड़ देते हैं। गुरू यानी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षक की गरिमा को देखे तो ऐसे उदाहरण देखने को मिले हैं कि कलियुगी शिक्षक सरस्वती के मंदिरों में ऐसे कृत्य करते पाए गये, जिन्हें हमारे सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं है। सोशल मिडिया पर गुरू पूर्णिमा पर आई बाढ को देखकर ऐसा लगता है कि आवाम का अपने गुरूजी के प्रति कितना सम्मान है। अध्यात्मिक संत सनातन धर्म के पुरोधा है, उनके नमन मात्र से ही हमें धनात्मक ऊर्जा मिलती है। गुरू पूर्णिमा मनाना तभी सार्थक होगा, जब हम उनके द्वारा स्थापित मानवीय मूल्यों, सनातन धर्म की संस्कृति को अंगीकार कर सभ्य समाज के निर्माण में महती भूमिका अदा करें ।

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