राम सुख सेवग जानें रे, दूजा दुःख करि मानै रे और अगनि की झाला, फंध रोपे हैं जमजाला।
सम काल कठिन सर पेखै, ये सिंह रूप सब देखै॥ विष सागर लहरि तरंगा, यहु ऐसा कूप भुवंगा। भैभीत भयानक भारी, रिपु करवत मीच विचारी॥ यहु ऐसा रूप छलावा, ठग पासी हारा आवा। सब ऐसा देखि विचारे , ये प्राणघात बटपारे।।
ऐसा जन सेवग सोई, मन और न भावै कोई। हरि प्रेम मगन रंगि राता, दादू राम रमै रसमाता॥
अर्थात भक्त की दृष्टि में एक राम ही सुखरूप है। बाकी तो सब दुःखरूप ही हैं, क्योंकि वे सब प्रकार के दुःखों को ही देने वाले होते हैं। राम से भिन्न जो संसार है, वह अग्नि की ज्वाला की तरह चिन्ताओं से जलाता रहता है। माया ने यह एक जगत् रूपी जाल बनाया है। प्राणी उसमें अपनी इच्छा से गिरकर बंध जाते हैं। राम से भिन्न सब क्रूर काल की तरह अथवा सिंह की तरह मारने वाले हैं। यह विषय तो विष के तुल्य है। संसार भी सों से भरे हुए अन्धे कूप की तरह भयानक है अथवा तलवार की तरह हृदय को चीरने वाला परम शत्रु है। यह संसार बंधक है, गले में मोह की फांसी डालकर मारने वाला है। अज्ञानी इस संसार जाल में हित बुद्धि से पड़कर अन्त में संसार के दुःखों से पीड़ित होता रहता है। भक्त तो इस संसार को ज्ञान की दृष्टि से देखता है कि ये संसारी प्राणी बड़े ही स्वार्थी तथा प्राणघातक होते हैं। अत: इनसे उदास रहते है। भक्त तो हरि को ही अपना प्रिय मानकर हरि के प्रेम में डूबा हुआ प्रेमरस को पीकर प्रेम मे उन्मत्त होकर राम के साथ ही रमण करता रहता है।
अध्यात्मरामायण में- पिता, माता, पुत्र, भाई, स्त्री और बन्धु- बान्धवों का संयोग प्याऊ पर एकत्रित हुए जीवों अथवा नदी प्रवाह से इकट्ठी हुई लकड़ियों के समान चंचल है। यह संसार सदा रोगों से व्याप्त तथा स्वप और गन्धर्वनगर के समान मिथ्या है। मूढ जन ही इसको सत्य मान कर इसका अनुसरण करते हैं। जब तक मनुष्य देह, इन्द्रिय और प्राण आदि से आत्मा की भिन्नता को नहीं जानता, तब तक वे मृत्यु-पाश में बंधकर सांसारिक दुःखों से पीड़ित होते रहते हैं। इसलिये तुम सर्वदा अपने हृदय में बुद्धि आदि से आत्मा को भिन्न अनुभव करते हुए इस संपूर्ण बाह्य व्यवहार का अनुवर्तन करो। सुख तथा दुःख रूप जो प्रारब्ध है, उसको भोगते चित्त में खेद मत मानो।