धार्मिक उपदेश: धर्म कर्म

AYUSH ANTIMA
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मन रे सोवत रैंनि बिहांनी, तैं अजहूं जात न जानी। बीती रैंनि बहुरि नहिं आवै, जीव जाणि जनि सोवै। चारों दिशा चोर घर लागे, जागि देख क्या होवै॥ १॥
भोर भये पछतावन लागे, मांहि महल कुछ नांहि। जब जाइ काल काया कर लागै, तब सोधै घर मांही॥ २॥ जागि जतन कर राखौ सोई, तब तन तत न जाई।
चेतनि पहरै चेतत नाही, कही दादू समझाई॥ हे जीव ! तू मोह निशा में सो सो कर जीवन रूपी रात्रि को यूं ही व्यतीत कर दी। क्या तू अब भी नहीं जान रहा है कि तेरी आयु प्राय नष्ट हो चुकी है। इसलिये सावधान हो जा। गई हुई आयु फिर से लौटकर नहीं आती है। शीघ्र चेत जा, सोवे मत। कामादि शत्रु तेरे हृदय मन्दिर से ज्ञान धन को चुरा रहे हैं। तू सावधान हो कर देख क्या हो गया है ? जैसे भयंकर सर्प वन की वायु को पी जाते हैं, वैसे ही दुःख औद दाह को देने वाले रोग तेरी आयु को पी रहे हैं। यह आयु भी चल और पत्ते के अग्र भाग पर स्थित जल बिन्दु की तरह क्षणभङ्गुर है, यह कौन नहीं जानता। दुर्भाग्य को देनीवाली यह तृष्णा भी राक्षसी की तरह से मनुष्य के हृदय को नष्ट कर रही है। फिर भी यह जीव सावधान नहीं होता। यह वाल्यावस्था तो थोडे ही समय में नष्ट हो जायगी। यौवन भी स्थिर नहीं है। जब बुढापे से जीर्ण हुआ शरीर कांपने लगेगा तब तू क्या करेगा। उस समय शरीर मन्दिर में बल पौरुष धैर्य आदि धन नहीं मिलेगा। तब मृत्यु भी शरीर धारण करके प्रकट होकर सहसा तुझे खाने को उद्यत होगी। तब तुम क्या करोगे। अत: अभी से सावधान न होकर तत्व ज्ञान और दैवी संपदा के गुणों की रक्षा करो। बार बार सावधान करने पर भी तू नहीं चेतता है तो फिर बुढापे में पश्चाताप करेगा। यह ही समय सावधान होने का है बुढापे में तो तेरा कोई भी सहायक नहीं होगा। जो बाल्यकाल में ही जाग कर ज्ञान धन की रक्षा कर लेता है। वह मुक्त हो जाता है। योग वासिष्ठ में लिखा :: हे मुने ! कपूर से सफेद हुए केले के पेड को हाथी क्षण भर में उखाड कर फेंक देता है। उसी प्रकार मृत्यु रूपी गजराज वृद्धावस्था से कपूर की तरह सफेद हुए शरीर को निश्चय ही क्षण भर में उखाड फेंकता है। हे मुने ! यह मरण रूपी राजा है। इसके जरा रूपी सफेद चमर डुलते हैं, और जब यह आता है तो आधि व्याधि रूप सेना इसका स्वागत करने के लिये आगे आगे आते हैं। हे मुने ! जिसको कोई भी युद्ध में जीत नहीं सकता था, जो पर्वतों की गुहाओं में रहते थे, उनको भी इस जरा से जीर्ण शरीरवाली इस जरा रूपी राक्षसी ने जीत लिया। हे तात ! जो वृद्धावस्था को प्राप्त हो कर भी जीता है। उस दुःख भरे जीवन के लिये दुराग्रह से क्या लाभ है। भूतल पर किसी से भी पराजित न होने वाली यह जरा अवस्था मनुष्यों की इच्छाओं का तिरस्कार कर देती है। उनकी किसी भी इच्छा को पूर्ण सफल नहीं होने देती।

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