मै अमली मतवाला माता, प्रेम मगन मेरा मन राता॥ अभी महारस भरि भरि पीवै, मन मत वाला जोगी जीवै॥ रहै निरन्तर गगन मंझारी, प्रेम पियाला सहजि खुमारी॥ आसणि अवधू अमृत धारा, जुगि जुगि जीवै पीवण हार॥ दादू अमली इहि रस माते, राम रसायन पीवत छाके॥
संतशिरोमणि श्री दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि मेरे को प्रभु के प्रेम रस का व्यसन सा हो गया है। अत: मैं उन्मत्त सा होता हुआ प्रभु में डूबा रहता हूँ। जिन भक्तो का मन प्रभु प्रेम में डूब गया उनको फिर दूसरा कोई
भी रस प्रिय नहीं लगता। यह भक्तिरस सब रसों से उत्कृष्ट रस है। इसको महारस कहते हैं। अत: मेरा मन भक्ति रस को महारस मान कर उसका यथेच्छ पान करता रहता है तथा इस महारस में डूबा हुआ योगी की तरह समाधि में स्थित होकर जी रहा है। अष्टदल कमल में स्थित प्रभु के पास ही रहता है तथा सहजावस्था में स्थित रहता है। प्रभु के दर्शनों के लिये आतुर मेरा मन गोपियों की तरह उन्मत्त प्रेम भरी दृष्टि से भगवान् को देखता हुआ भगवद्भाव को प्राप्त कर जी रहा है क्योंकि प्रेमामृत धारा का पान करने वाले भक्त का जीवन भक्ति के लिये ही होता है। उसके प्रीति का विषय कोई दूसरा होता ही नहीं, जिससे वह उसके लिये जीवे। भक्त उसी रामरसायन का पान करके सदा तृप्त रहते हैं।
भक्तिरसायन में लिखा है कि- उत्तम महारस को त्याग कर से अधर (ओष्ठ) निकृष्ट नि:सार रस को क्यों मांगती हो ? ऐसा आप कहकर दूसरों को ठग सकते हैं। हमारा जो आशय है, उसको आप हे भगवन् ! कान खोलकर सुन लीजिये। जो अमृत है, जिसको अधरामृत कहते हैं, उसको हम चाहती हैं क्योंकि वह हमारे लिये ही है।