अलवर (मनीष अरोड़ा): सनातन पद्धति में प्रत्येक त्यौहार के पीछे कोई ना कोई मान्यता जुड़ी हुई है, जो कि ईश्वरीय शक्ति का अहसास मनुष्य मात्र को अवश्य करवाती है। ऐसा ही एक इतिहास होलिका दहन का भी है, जिसके चलते प्रतिवर्ष होलिका दहन का आयोजन किया जाता है। एक मान्यता के अनुसार प्रहलाद ईश्वर का परम भक्त और जो बाल्य अवस्था में ही भगवान के भजन में लग गया था, जिसके चलते उसके पिता हिरण्यकश्यप सदैव उसे ईश्वर के मार्ग से भटकाने का प्रयास करते रहते थे। वही प्रहलाद की बुआ होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी, इसके चलते यह हिरन्यकष्यप ने युक्ति सोची कि बालक भक्त प्रहलाद को होलिका की गोदी में बैठाकर आग में जला दिया जाए, जिससे कि होलिका तो बच जाएगी और प्रहलाद जलकर भस्म हो जाएगा लेकिन ईश्वर की लीला अपरंपार है और हुआ बिल्कुल विपरीत जब बालक भक्त प्रहलाद को उसकी बुआ की गोद में बैठाकर अग्नि प्रज्वलित की गई तो बुआ होलिका तो जलकर भस्म हो गई लेकिन प्रहलाद सकुशल बाहर निकला और बच गए। इसी याद में प्रतिवर्ष फाल्गुन मास की पूर्णिमा की रात्रि को होलिका दहन की रस्म का आयोजन किया जाता है। इस त्यौहार के माध्यम से ईश्वरीय शक्ति का संदेश मानव मात्र को मिलता है।
इसके अगले दिन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को फागोत्सव प्रतिवर्ष मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि मनुष्य भले अपने जीवन में जब तक सांस है, स्वयं को न जाने कितना शक्तिशाली समझ बैठता है लेकिन शास्त्र और पुरातन मान्यताओं के अनुसार ईश्वर शक्ति सदैव मनुष्य से बड़ी थी और सदैव सर्वशक्तिमान रहेगी। बस यही संदेश होलिका दहन में मानव मात्र को देने का प्रयास प्रतिवर्ष किया जाता है।