जागि रे सब रैंण बिहांणी, जाइ जन्म अंजुली कौ पाणी॥
घड़ी-घड़ी घड़ियाल बजावै, जे दिन जाइ सो बहुरि न आवै।
सूरज चन्द कहैं समझाइ, दिन दिन आयु घटती जाइ॥ सरवर पाणी तरवर छाया, निस दिन काल गिरासै काया॥ हंस बटाऊ प्राण पयानां, दादू आतमराम न जानां॥ अर्थात हे जीव ! तू शीघ्र ही जाग, जाग। तेरी आयु फूटे घड़े के जल की तरह शीघ्र ही नष्ट हो रही है। तेरा जन्म भी अञ्जलि के पानी की तरह व्यर्थ ही जा रहा है। घड़ियाल को बजाने वाला प्रहरी भी घंटा बजा-बजाकर कह रहा है कि बीता हुआ दिन फिर जीवन में नहीं आता। सूर्य चन्द्रमा भी अपने आने और जाने से यही सूचित कर रहे है कि प्रतिक्षण आयु नष्ट हो रही है। जैसे तालाब का पानी और वृक्षों की छाया प्रतिक्षण समयानुसार नष्ट होती रहती है, ऐसे ही शरीर की आयु भी नष्ट हो रही है। इस तरह देखते-देखते इस पथिक जीव के शरीर में से हंस आत्मा निकल जाता है और शरीर मर जाता है। यह काल, निर्दयी, कठोर क्रूर स्वभाव वाला, कर्कश, कृपण और अधम है। ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसको काल न निगलता हो। तृण, धूलि, इन्द्र, सुमेरु पर्वत, पत्ते, समुद्र इन सबको अपने पेट में भरने वाला काल सबको निगलने के लिये उद्यत हो रहा है।