बटाऊ! चलणा आज कि काल्ह,
समझि न देखे कहा सुख सोवै, रे मन राम सँभाल॥ जैसे तरुवर वृक्ष बसेरा, पक्षी बैठे आइ।
ऐसे यहु सब हाट पसारा, आप आपको जाइ॥ कोई नहिं तेरा सजन संगाती, जनि खावे मन मूल। यहु संसार देख जनि भूले, सब ही सेमल फूल॥ तन नहिं तेरा, धन नहिं तेरा, कहा रह्यो इहिं लाग। दादू हरि बिन क्यों सुख सोवे, काहे न देखे जाग॥
अर्थात हे पथिक जीव ! तुझे आज कल में यहां से अवश्य जाना है, ऐसा विचार कर, व्यर्थ में ही क्यों सुख से सो रहा है ? भगवान् को क्यों नहीं भजता ? जैसे पक्षी रात में वृक्ष पर बैठ जाते हैं और रात में विश्राम करके प्रात: काल उड़ जाते हैं, जैसे व्यापारी दिन में व्यापार करके अपनी दुकान को छोड़कर सायंकाल अपने घर पर आ जाते हैं, ऐसे ही संसारी मनुष्य अपने-अपने कर्म-फलों को भोग कर दूसरे शरीर में जाते रहते हैं। इस संसार में कोई भी चिरस्थायी नहीं है। न कोई किसी का सज्जन-साथी है। तू हरि ? भजन के बिना अपना समय व्यर्थ में ही क्यों खो रहा है ? मिथ्याभूत संसार को देख कर क्यों प्रभु को भूल रहा है ? यह सारा संसार सेमल के फूल की तरह दिखावा मात्र है। जिन स्त्री, पुत्रादिकों में जो तू अनुरक्त हो रहा है, वे भी तेरे नहीं है। अविद्या को हटाकर प्रभु का भजन क्यों नहीं करता।
योगवासिष्ठ में-समस्त शत्रुओं को मार कर भगा देने पर भी जब चारों ओर से धन सम्पत्ति प्राप्त होने लगती है, उस समय ज्यों ही मनुष्य इन को भोगने लगता है, त्यों ही मृत्यु कहीं से सहसा आ जाती है। जो किसी कारण से वृद्धि को प्राप्त होकर भी क्षण भर में ही नष्ट होते देखे जाते हैं। ऐसे अत्यन्त तुच्छ भोगों द्वारा इधर-उधर भटकाई गई जनता इस भूतल पर अपने निकट आई हुई मृत्यु को भी नहीं देख पाती। यह कितने आश्चर्य की बात है।