पंथीड़ा पंथ पिछाणी रे पीव का, गहि विरहे की बाट। जीवत मृतकह्वै चले, लंघे औघट घाट, पंथीड़ा॥ सतगुरु सिर पर राखिये, निर्मल ज्ञान विचार। प्रेम भक्ति कर प्रीत सौं, सन्मुख सिरजनहार, पंथीड़ा॥१॥
पर आतम सौं आत्मा, ज्यों जल जलहि समाइ। मन हीं सौं मन लाइये, लै के मारग जाइ, पंथीड़ा॥२॥ तालाबेली ऊपजै, आतुर पीड़ पुकार। सुमिर सनेही आपणा, निशदिन बारम्बार, पंथीड़ा॥३॥ देखि देखि पग राखिये, मारग खांडे धार। मनसा वाचा कर्मणा, दादू लंघे पार, पंथीड़ा॥४॥ सत्पुरुषों के द्वारा प्रभु प्राप्ति के मार्ग को जानकर विरह-भक्ति द्वारा उसकी प्राप्ति के लिए यत्न करना चाहिये, जीते हुए ही मृतक की तरह निर्द्वन्द्व हो जावो, तभी तुम दुर्जेय काम क्रोधादि शत्रुओं को जीत सकोगे। अहंकार शत्रु को जीतो और प्रेम से हरि की भक्ति करते हुए प्रभु के सन्मुख हो जावो। सद्गुरु के उपदेश को मन में धारण करके संशय-विपर्य दोष से रहित होकर ज्ञान द्वारा दूध में जल की तरह अपनी आत्मा को परमात्मा में विलिन कर दो। यद्यपि यह मार्ग कठिन है, फिर भी द्रवीभूत हृदय से व्याकुल होकर प्रभुप्राप्ति के लिये बार-बार प्रार्थना करते हुए अपनी बुद्धि तथा मन को परमात्मा में लगा दो। इस लय-योग से तुम्हें अवश्य प्रभु की प्राप्ति हो जायगी। दिन-रात अपने प्यारे प्रभु को याद कर कर के अपनी विवेकमयी दृष्टि से उसको देखो। यह मार्ग कृपाण की धार की तरह अत्यन्त तीखा है। फिर भी जो मानव मन-वाणी शरीर आदि से सावधान रहता है, उसके लिये यह कार्य दुष्कर नहीं है। वह साधक कुछ ही दीनों में लय-योग साधन से संसार-समुद्र को पार करके परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।