भारत कृषि प्रधान देश रहा है। देश की 80 प्रतिशत आबादी के जीवन यापन का मुख्य साधन खेती ही था। किसान होना किसी जाति विशेष का होना नहीं है क्योंकि कालखंड में हर जातियां खेती ही करती थी। संयुक्त परिवारों के चलते हर किसान के पास इतनी जमीन होती थी कि वह अपने परिवार का आनंद से भरण-पोषण करता था। समय बदला संयुक्त परिवार में विखंडन की स्थिति आने से जमीन भी बंट गई और लोगों ने गांवों से शहर का रूख कर लिया। रही सही कसर पानी की कमी ने पूरी कर दी। यह तथ्य मैं इसलिए रख रहा हूं कि आधुनिक परिवेश में राजनेता अपने बचाव को लेकर यह कहना शुरू कर देते हैं कि मैं किसान का बेटा हूं का आलाप करना शुरु कर देते हैं। अभी हाल ही में राजस्थान के मुख्यमंत्री विधानसभा में यह कहते सुने गये कि मैं किसान का बेटा हूं, इसलिए मुझे बोलने नहीं देते। यही उवाच राज्यसभा में भी सुनने को मिला था कि मैं किसान व एक विशेष जाति से आता हूं, इसलिए मेरे साथ ऐसा होता है। उच्च पदों पर आसीन महानुभावों द्वारा इस तरह का आलाप हमें देखने को मिलता है लेकिन क्या उन्होंने किसानों के हितों को लेकर आवाज उठाने की जहमत उठाई, जो इस किसान शब्द का कवच पहनकर खड़े हो जाते है। सभी के पूर्वज किसान ही थे और उन महानुभावों के पूर्वज ही किसान ही थे, इसमे संदेह नहीं लेकिन अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिए एक किसान को ढाल बनाना व इसको लेकर राजनीति करना राज नेताओं ने अपना राज धर्म समझ लिया है।
जब इन नेताओं पर बात आती है तो किसान का बेटा हूं का उच्चारण करना शुरु कर देते हैं परन्तु जब देश के किसानो के हितो की बात आती है तो इन नेताओं के मुंह पर ताला लग जाता है। कागजो में बड़े बड़े होर्डिंग लगाकर इनके हित रक्षक बनने का ढोंग करने वाले इन नेताओं को तब पता चले जब इस कड़ाके की ठंड में रात को खेतों मे पानी लगाने भेजा जाए। एसी गाड़ी और एसी बंगले में बैठे इन नेताओं को किसान बोलकर इनका उपहास करने से बाज आना चाहिए। बिजली व पानी की कमी ने इन किसानों की दशा बदतर कर दी है तत्पश्चात जो भी योजनाएं व बजट की घोषणाएं होती है, इनके हिस्से में कुछ भी नही आता। इनके हिस्से में आता है तो इन नेताओं का भाषण कि यह बजट किसानों के हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया है।