निर्पख रहणा, राम राम कहणा,
काम क्रोध में देह न दहणा॥
जेणें मारग संसार जाइला, तेणें प्राणी आप बहाइला॥१॥ जे जे करणी जगत करीला, सो करणी संत दूर धरीला॥२॥ जेणें पंथैं लोक राता, तेणैं पंथैं साधु न जाता॥३॥ राम नाम दादू ऐसें कहिये, राम रमत रामहि मिल रहिये॥४॥ साधक सन्तों को उपदेश कर रहे हैं श्री दादू देवजी महाराज :- सत्पुरुषों को भगवान् का भजन निष्पक्ष भाव से ही करना चाहिये। द्वैत-अद्वैत आदि पक्षों का अवलम्बन करके वाद विवाद नहीं करना चाहिये। काम क्रोध की आग में अपने को नहीं जलाना चाहिये। संसार जिस रास्ते से चलता है, सन्त उस रास्ते से नहीं चलते, क्योंकि संसार का रास्ता विषयप्रधान होता है। संत यदि उस रास्ते चलेगा तो उसका पतन अवश्य होगा, जो कार्य अनुचित तथा शास्त्रनिषिद्ध व संसारी पुरुषों को प्रिय है, सन्त उस रास्ते का अनुसरण नहीं करते। सन्त भोगप्रधान मार्ग से नहीं चला करते। सन्त तो रामनाम करते हुए रामभक्ति में मस्त होकर भजन का आनन्द लूटते हुए भगवान् के स्वरूप में लीन हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत में कहा है कि –दुर्वासाजी अम्बरीष राजा से कह रहे हैं कि –धन्य है, आज मैंने भगवान् के प्रेमी भक्तों का महत्त्व देखा। हे राजन् ! मैंने आपका अपराध किया फिर भी आप मेरे लिये मंगल-कामना ही कर रहे हैं। जिन्होंने भक्तों के परमाराध्य श्री हरि को दृढ़ प्रेमभाव से पकड़ लिया है, उन साधु पुरुषों के लिये कौन सा कार्य कठिन है ? जिनका हृदय उदार है, वे महात्मा भला किस वस्तु का त्याग नहीं कर सकते ? जिनके मंगलमय नामों के श्रवण मात्र से जीव निर्मल हो जाता है, उन्हीं तीर्थ-पाद भगवान् के चरण-रज के जो दास हैं, उनके लिये कौन सा कार्य शेष रह जाता है ?