नेटि रे माटी में मिलना, मोड़ मोड़ देह काहे को चलना॥ काहे को अपना मन डुलावै, यहु तन अपना नीका धरना। कोटि वर्ष तूँ काहे न जीवै, विचार देख आगै है मरना॥ काहे न अपनी बाट सँवारै, संजम रहना, सुमिरण करणा। गहिला ! दादू गर्व न कीजे, यहु संसार पँच दिन भरणा॥ संतप्रवर श्रीदादू दयाल जी महाराज कहते है कि इस शरीर का नाश नियत है। अन्त में, मिट्टी का होने से यह मिट्टी में ही मिल जायेगा तो फिर इस अनित्य शरीर का अभिमान क्यों करता है ? धन, जन यौवन और शरीर इन का अभिमान नहीं करना चाहिये क्योंकि विकराल काल इनका निमेष मात्र में ही विनाश कर देता है। ऐसा शंकारचार्य का वचन भी है। तेरा मन विषयों के लिये चंचल क्यों हो रहा है ? सदाचार का पालन कर। तुझे कोई करोड़ वर्ष तो नहीं जीना है और यदि जी भी जाय तो आखिर विनाश निश्चित है। अतः हे जीव ! तू कल्याण के लिये यत्न क्यों नहीं करता ? जिस परमात्मा ने तेरे को यह शरीर दिया है उसी का गुणगान कर। गरुड़पुराण में कहा है कि –यदि आत्मज्ञान की इच्छा है और आत्मज्ञान से परम पद प्राप्त करना चाहता है तो यत्न पूर्वक गोविन्द भगवान् का कीर्तन कर। जैसे अग्नि सुवर्ण आदि धातुओं के मल को नष्ट कर देती है, ऐसे ही भक्ति से किया गया भगवान् का कीर्तन सब पापों के नाश का उत्तम से उत्तम साधन है। भगवान् का नाम भी सुगम है, सुलभ है, जिव्हा भी अपने वश में है। फिर भी मनुष्य नरक में गिरते हैं, यह आश्चर्य की बात है।
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