करणी पोच, सोच सुख करई, लौह की नाव कैसे भौजल तिरई॥ दक्षिण जात पश्छिम कैसे आवै, नैन बिन भूल बाट कित पावै॥१॥ विष वन बेलि, अमृत फल चाहै, खाइ हलाहल, अमर उमाहै॥२॥ अग्नि गृह पैसि कर सुख क्यों सोवै, जलन लागी घणी, सीत क्यों होवै॥३॥ पाप पाखंड कीये, पुण्य क्यों पाइये, कूप खन पड़िबा, गगन क्यों जाइये॥४॥ कहै दादू मोहि अचरज भारी, हिरदै कपट क्यों मिलै मुरारी॥५॥ जैसे लोहमयी नाव से समुद्र पार करना कठिन है, वैसे ही पापकर्म करने से सुख नहीं मिल सकता है, वैसे ही विषयविष से भरे हुए इस संसार को पार करना भी कठिन ही है। दक्षिण की तरफ जाने वाला पूर्व में कैसे जा सकता है क्योंकि दोनों दिशायें परस्पर विरुद्ध हैं। जो नेत्रों से तो अंधा है और रास्ता चूक गया तो स्वयं कैसे जान सकता है। विष की लता से कभी अमृत पैदा नहीं हो सकता। हलाहल विष का खाने वाला कभी अमर नहीं सुना गया। जिस घर में आग लगी हो, उसमें कोई भी सुख से नहीं सो सकता, प्रत्युत अग्नि की ज्वाला से संतप्त रहता है और न उस घर में शैत्य ही उपलब्ध हो सकता है।
ऐसे ही पापपाखंड करने वाले को पुण्य कैसे प्राप्त हो सकता हैं। कूप में पड़ा हुआ स्वयं आकाश में कैसे जा सकता है। मुझे बड़ा ही आश्चर्य हो रहा है कि पापपाखण्ड करने वालों को परमात्मा कैसे प्राप्त हो सकता है, वे तो नरकामी बनेंगे। अतः प्रभु को प्राप्त करने के लिये पापपाखण्ड को त्यागकर पुण्य कर्म करने चाहिये। उपनिषद् में कहा है कि –पापकर्म करने वाला नीच योनि में जन्म लेता है। जैसे चाण्डाल योनि सूकर कूकर योनि में जाता है। पद्मपुराण में कहा है कि –असत्य भाषण परस्त्री का संग करने वाला अभक्ष्य भक्षण तथा अपने कुल धर्म से विरुद्ध आचरण करने से कुल का शीघ्र नाश हो जाता है। किसी से अकारण वैर न करे किसी की चुगली न करे। दूसरे के खेत में चरती हुई गौ का खेत वाले को समाचार न देवे। चुगलखोर के पास न रहे। किसी को चुभने वाली बात न कहे।