नीतीश कुमार: सत्ता, रणनीति और पलटी का पूरा सच

AYUSH ANTIMA
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बिहार की राजनीति में यदि किसी नेता ने बार-बार अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, तो वह हैं नीतीश कुमार। एक ऐसा नाम, जो कभी सुशासन बाबू कहलाया, कभी विकास पुरुष और फिर कभी पलटू राम के उपनाम से पुकारा गया। यह विरोधाभास ही उनके राजनीतिक व्यक्तित्व की असली पहचान बन गया है। स्थायित्व और परिवर्तन दोनों एक साथ।
नीतीश कुमार का जन्म 1 मार्च 1951 को नालंदा जिले के एक सामान्य परिवार में हुआ। राजनीति में उनका उदय उस दौर में हुआ, जब पिछड़े वर्गों की सामाजिक चेतना राजनीति का निर्णायक आधार बन रही थी। समाजवादी विचारधारा से प्रेरित होकर उन्होंने जनता दल और फिर जदयू के माध्यम से सत्ता तक अपनी राह बनाई। वे तकनीकी दृष्टि से कुशल, प्रशासनिक रूप से सधे हुए और जनता की नब्ज़ पहचानने वाले नेता के रूप में उभरे लेकिन इस सफलता के साथ ही उनकी राजनीति में एक अनोखा विरोधाभास भी जुड़ गया, गठबंधन और पलटी का खेल। कभी भाजपा के साथ सत्ता में रहे, तो कभी उसी गठबंधन को छोड़कर लालू प्रसाद यादव के साथ हाथ मिला लिया। फिर जब हालात बदले, तो राजद-कांग्रेस गठबंधन छोड़कर पुनः एनडीए का दामन थाम लिया। यह प्रवृत्ति इतनी चर्चित हुई कि लालू ने व्यंग्य करते हुए कहा था कि हमारे मुंह में तो 32 दांत हैं पर नीतीश के पेट में भी दांत हैं। यह वाक्य न केवल राजनीतिक चुटकी था, बल्कि नीतीश की रणनीतिक प्रकृति पर गहरी टिप्पणी भी। वास्तव में नीतीश कुमार की राजनीति नैतिक लचीलेपन का प्रतीक बन गई है यानि वे सत्ता को साधन नहीं, बल्कि साध्य मानते दिखे। सत्ता में बने रहना और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना उनकी प्राथमिकता रही है, भले ही इसके लिए गठबंधन या राजनीतिक रंग बदलना क्यों न पड़े। उनका मानना रहा है कि यदि लक्ष्य विकास है तो रास्ता परिस्थितियों के अनुसार बदल सकता है लेकिन आलोचकों के लिए यही दृष्टिकोण उनकी सबसे बड़ी कमजोरी बन गया। 2005 में जब उन्होंने बिहार की कमान संभाली, तब राज्य अराजकता, जातीय हिंसा और बदहाली से जूझ रहा था। नीतीश ने सड़क, शिक्षा, बिजली और कानून-व्यवस्था में सुधार के प्रयास किए। महिलाएं पहली बार बड़ी संख्या में पंचायतों से लेकर नौकरियों तक सशक्त हुईं। इन उपलब्धियों ने उन्हें विकास पुरुष की पहचान दी। किन्तु समय के साथ यह पहचान गठबंधन की अस्थिरता में खोती चली गई। लोग यह पूछने लगे कि विकास का वादा क्या सत्ता-स्थायित्व से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होना चाहिए। अब जबकि नीतीश कुमार नौवीं बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल चुके हैं, यह सवाल और तीखा हो गया है ।
*क्या यह उनकी आखिरी पारी है*
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि नीतीश अब थके हुए लेकिन रणनीतिक नेता हैं। वे जानते हैं कि 2025 के चुनाव में जनता केवल वादों पर नहीं, भरोसे पर फैसला करेगी। भाजपा और राजद दोनों ही उनके पुराने साथी और प्रतिद्वंद्वी हैं। ऐसे में वे किसके साथ रहेंगे या कब पलटी मारेंगे, यह किसी को नहीं पता। यही अनिश्चितता उनकी सबसे बड़ी ताकत और सबसे बड़ी कमजोरी दोनों है।
यदि वे अब भी विकास, सुशासन और सामाजिक न्याय की त्रयी पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो वे एक बार फिर अपने आलोचकों को चौंका सकते हैं लेकिन यदि सत्ता-समीकरणों के फेर में फंसे रहे, तो यह सचमुच उनकी राजनीतिक यात्रा की अंतिम किस्त साबित हो सकती है।
अंततः, नीतीश कुमार की कहानी केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति की उस प्रवृत्ति की दास्तान है, जहाँ नीति और नीयत के बीच की रेखा अक्सर धुंधली हो जाती है। उन्होंने बार-बार यह दिखाया कि राजनीति में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता, केवल स्थायी हित होते हैं और यही कारण है कि लालू की कही बात—नीतीश के पेट में भी दांत हैं, आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी दो दशक पहले थी।


*@ रुक्मा पुत्र ऋषि*

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