राजस्थान परिवहन विभाग से सामने आया वीआईपी नंबर घोटाला, किसी साधारण भ्रष्टाचार की कहानी नहीं, बल्कि एक योजनाबद्ध और संगठित सिस्टम की लूट की मिसाल है। यह वही घोटाला है, जिसने न केवल सरकारी खजाने को लगभग 600 करोड़ रुपये का नुकसान पहुँचाया, बल्कि उस जनता के विश्वास को भी चोट दी, जो सरकार की पारदर्शिता पर भरोसा करती है। हमारे भारतीय समाज में “0001”, “1111”, “0786”, “9999” जैसे नंबर लंबे समय से रुतबे, पहचान और प्रतिष्ठा का प्रतीक रहे हैं। आम धारणा यह रही कि जो व्यक्ति इन नंबरों पर चल रहा है, वह किसी हैसियत का मालिक होगा। सरकार ने पारदर्शिता बढ़ाने के लिए ऑनलाइन नीलामी प्रणाली शुरू की थी ताकि हर कोई निष्पक्ष रूप से अपने मनपसंद नंबर की बोली लगा सके लेकिन पारदर्शिता का यह दावा दिखावा बनकर रह गया। कई आरटीओ कार्यालयों में नीलामी का रिकॉर्ड या तो गायब कर दिया गया, या फिर तकनीकी गड़बड़ी का हवाला देकर मिटा दिया गया। लाखों में बिकने वाले वीआईपी नंबरों को कुछ हजार रुपये में बांट दिया गया, वो भी पहचान वालों या दलालों के ज़रिए। जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, अजमेर, अलवर, भरतपुर—लगभग हर संभागीय आरटीओ कार्यालय में एक जैसा पैटर्न देखने को मिला। यानि यह किसी एक शहर का मामला नहीं, बल्कि राज्यव्यापी भ्रष्टाचार नेटवर्क का परिणाम था। जब इस मामले की जांच शुरू हुई, तो कई आरटीओ कार्यालयों ने रिपोर्ट देने से ही मना कर दिया। कुछ ने तो यह कहकर बचने की कोशिश की कि डेटा सर्वर से डिलीट हो गया। कई जगहों पर नीलामी के दस्तावेज़ ही नहीं मिले। इससे स्पष्ट होता है कि घोटाला केवल हुआ नहीं, बल्कि उसे छिपाने की साज़िश भी उतनी ही योजनाबद्ध थी। इस पूरे सिस्टम में वे ही लोग शामिल पाए गए, जिनका काम जनता के हितों की रक्षा करना था। यही कारण है कि यह मामला केवल विभागीय भ्रष्टाचार नहीं, बल्कि एक संस्थागत अपराध (Institutional Crime) के रूप में देखा जा रहा है। इस कथित घोटाले से सरकार को जो नुकसान हुआ, वह असल में जनता की जेब से निकला पैसा था। छह सौ करोड़ रुपये की इस राशि से न जाने कितने स्कूलों की जर्जर दीवारें सुधारी जा सकती थीं, अस्पतालों में दवाइयाँ खरीदी जा सकती थीं या सड़कों के गड्ढे भरे जा सकते थे, पर अफसरशाही और राजनीतिक संरक्षण की मिलीभगत ने इन पैसों को नंबरों की दलाली में उड़ा दिया। अब सवाल केवल आर्थिक नुकसान का नहीं, बल्कि नैतिक पतन का है, जब सरकारी कुर्सी पर बैठे लोग जनता के भरोसे को बेच दें, तो लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती हैं। प्रारंभिक जांचों में यह सिफारिश की गई कि दोषी अधिकारियों को निलंबित किया जाए पर सवाल यह है कि क्या सिर्फ निलंबन से जनता का 600 करोड़ वापस आ जाएगा। सच यह है कि निलंबन केवल दिखावा है; वास्तविक आवश्यकता है निर्णायक कार्रवाई की। इस पूरे मामले की सीबीआई और ईडी से संयुक्त जांच की माँग उठी है ताकि पिछले पाँच वर्षों की सभी नीलामियों का फॉरेंसिक ऑडिट कराया जा सके। जिन अधिकारियों ने डेटा मिटाया या रिपोर्ट दबाई, उनकी संपत्ति ज़ब्त की जानी चाहिए और सबसे जरूरी बात, भविष्य की सभी नीलामियों को लाइव ट्रैकिंग सिस्टम से जोड़ा जाए ताकि कोई नंबर गुपचुप तरीके से न बिक सके। सरकार ने डिजिटल नीलामी और ई-गवर्नेंस का जो मॉडल अपनाया, उसका उद्देश्य पारदर्शिता था। परन्तु इस घोटाले ने यह साबित कर दिया कि तकनीक बिना ईमानदारी के केवल मुखौटा बन जाती है। डेटा में हेरफेर, सर्वर लॉग्स गायब होना और नीलामी की गुप्त प्रक्रिया, यह सब दर्शाता है कि डिजिटल सिस्टम में भी भ्रष्टाचार की जगह बनाई जा सकती है, अगर सिस्टम चलाने वाले लोग ही ईमानदार न हों। इस घोटाले का आर्थिक असर चाहे कुछ वर्षों में पूरा हो जाए, पर जनता के भरोसे का घाटा कभी पूरा नहीं हो पाएगा। जब सरकार पारदर्शिता का नारा देती है और उसके विभाग गुपचुप सौदे करते हैं, तो जनता यह मान लेती है कि ईमानदारी अब सबसे सस्ती चीज़ बन चुकी है। राजस्थान का आरटीओ विभाग अब कठघरे में है और सरकार के सामने चुनौती यह है कि वह यह साबित करे कि पारदर्शिता उसके लिए नारा नहीं, बल्कि नीति है। यह मामला केवल वीआईपी नंबरों की नीलामी में भ्रष्टाचार का नहीं, बल्कि संविधानिक नैतिकता के क्षरण का प्रतीक है। जब नंबर प्लेट बिकने लगे, तो समझ लेना चाहिए कि अब सिस्टम का इंजन भी बाजार में है। इसलिए आज सबसे बड़ा प्रश्न यह नहीं कि घोटाला कितना बड़ा है बल्कि यह है कि ईमानदारी अब किस कीमत पर बिकती है। भाई सुरेन्द्र चतुर्वेदी की भी कलम, विषय पर चली। उन्हें साधुवाद।
*@रुक्मा पुत्र ऋषि*