हां माई माई मेरौ राम बैरागी, तजि जनि जाई।। टेक ।। राम विनोद करत उर अन्तरि, मिलिहौं वैरागिनि धाई।। १।। जोगिन है करि फिरौगी विदेसा, राम नाम ल्यौ लाइ।। २।। दादू को स्वामी है रे उदासी, रहि हौं नैन दोइ लाइ॥ ३॥ हे मात ! मेरा राम तो वैरागवान् है अत: वह कभी मुझे त्याग कर चला जाय तो मेरी क्या दशा होगी ? नहीं, नहीं, सखि ! वह तो तेरे हृदय मन्दिर में तेरे प्रेम तन्तुओं से बंधा हुआ तेरे साथ प्रेम क्रीडा कर रहा है, अत: वह तुम को कैसे छोड सकता है ? हां सखी मैं भी उसके लिये वैराग्य धारण करके उसके चरणों में गिर जाऊंगी, जिससे मैं संसार सागर से पार हो जाउंगी। फिर भी भगवान् न ही प्राप्त होंगे तो मैं वैराग्य धारण करके योगिनी बनी हुई रामनाम का स्मरण करती हुई सब दिशाओं में भ्रमण करती रहूंगी। यद्यपि मेरा स्वामी वैराग्यवान् है फिर भी मैं अपने दोनों नेत्रों से उनको देखती हुई तद्रूप बन जाऊंगी। इस भजन में भगवान् की प्राप्ति के लिये वैराग्य को साधन बतलाया है क्योंकि वैराग्य के बराबर कहीं थोडा सा भी सुख नहीं है। योगवासिष्ठ में लिखा है कि-
हे श्रीराम ! मनुष्य को राज्य से न स्वर्ग से न चन्द्रमा से, न वसन्त से, न स्त्री के कमनीय संग से उत्तम सुख शान्ति प्राप्त हो सकती है, जैसी आशा त्याग से मिलती है क्योंकि आशाओं का त्याग ही सब से अधिक सुख शान्तिमय है। जिस परम निर्वाण रूप मोक्ष के लिये तीनों लोकों की संपत्तियां तिनके की तरह कुछ भी काम नहीं देती किन्तु आशा के त्याग से ही मोक्ष प्राप्त होता है। निराशा रूपी अलंकार से भूषित मनुष्य के लिये पृथ्वी गाय के खुर की तरह तुच्छ तथा सुमेरु स्थाणु की तरह और त्रिभुवन की लक्ष्मी तृण की तरह तुच्छ होती है। वेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह में-जो मानव इस मल मूत्र की राशि शरीर में सुख मान कर रमण करता है और स्त्री पुत्र कलत्र क्षेत्र आदि में आसक्त होकर स्वर्ग की तरह रमण करते हैं, वे कीट की तरह हैं उनमें और विष्ठा में रमण करने वाले कीडे में कोई भेद नहीं है। उनको कभी मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता किन्तु वे बार बार गर्भवास के दुःख प्रवाह में पडते रहते हैं। जिन्होंने स्त्री पुत्र धनादिकों की आशा को निराशा में परिणत कर दिया (अर्थात् इनसे उदासीन हो गये) उनको मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त होती है। अत: संसार से वैराग्य धारण करके भगवान् के नाम को ही जपते रहना चाहिये।