इहै परम गुरु जोगं, अमी महारस भोगं।। टेक॥ मन पौना थिर साधं, अविगत नाथ अराधं, तहं शब्द अनाहदनादं॥१॥ पंच सखी परमोधं, अगम ज्ञान गुरुबोधं, तहं नाथ निरंजन शोधं॥२॥ सतगुरु मांहिं बतावा, निराधार घर छावा, तहं ज्योतिस्वरूपी पावा॥३।
सहजै सदा प्रकाशं, पूरण ब्रह्म विलासं, तहं सेवक दादू दासं॥४॥ परम गुरु ने मुझे जो योग साधना और ज्ञानामृत का उपदेश दिया है, उसका उपभोग (अनुभव) इसी शरीर में होता है। इसी शरीर में योग साधना के द्वारा प्राणों का अवरोध करके मन को प्रत्याहार द्वारा विषयों से हटाकर परब्रह्म परमात्मा की उपासना होती है। योग साधना में
जब अनाहत नाद की ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है तब हमारी प्यारी सखी रूप पांचों इन्द्रियाँ विषयों की आसक्ति को त्याग कर जग जाती है। गुरु के उपदेश द्वारा आत्मा का श्रवण करके आत्मा का परोक्ष ज्ञान किया जाता है। उसके बाद निदिध्यासन द्वारा निरंजन निराकार परमात्मा को खोजकर साधक अभेद रूप से उसको प्राप्त कर लेता है अर्थात् उससे मिल जाता है। अत: सब कुछ ज्ञान इसी शरीर में ही होता है। मैं भी ज्योति स्वरूप परब्रह्म परमात्मा को देखता हूँ और अनायास ही साक्षात्कार रूप आनन्द का अनुभव कर रहा हूँ, अपनी अन्त:करण की वृत्ति से उस परमात्मा को भजता हूँ।
विवेकचूडामणि में-जैसे पृथिवी में गडे हुए धन को प्राप्त करने के लिये पहले किसी विश्वसनीय पुरुष के कथन की, फिर पृथ्वी को खोदने की कंकड पत्थर आदि को हटाने की तथा प्राप्त धन को स्वीकार करने की आवश्यकता होती है। कोरी बातों से वह धन बाहर नहीं निकलता। उसी प्रकार समस्त मायिक प्रपंच से शून्य, निर्मल आत्मतत्व भी ब्रह्मवित् गुरु के उपदेश तथा उसके मनन निदिध्यासन आदि से ही प्राप्त होता है, थोथी बातों से नहीं। इसलिये रोग आदि के समान भवबन्ध की निवृत्ति के लिये विद्वान् को अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर स्वयं ही प्रयत्न करना चाहिये।