देखत ही दिन आइ गये, पलटि केस सब खेत भये॥ टेक॥
आई जरा मीच अरु मरणा, आया काल अवे क्या करणा॥१॥ श्रवण सुरति गई नैन न सूझै, सुधि बुधि नांही कह्या न बूझै॥२॥ मुख तैं शब्द विकल भइ वाणी, जन्म गया सब रैनि बिहाणी॥ ३॥ प्राण पुरुष पछतावत लागा, दादू औसर काहे न जागा॥ ४॥ मृत्यु का समय नजदीक ही आ गया है। केश भी सफेद हो गये। बुढ़ापा भी आ गया। मृत्यु भी खाने के लिये जल्दी मचा रही है। यह कायलता भी जीर्ण शीर्ण हो गई है। संसार से जाने के लिये जो यात्रा का समय है वह भी आ गया है। आयु भी जल्दी जल्दी दिन रात पूरी हो रही है। प्राणों को छीनने में लगा हुआ मृत्यु किसी को भी नहीं छोडता। अब तो अन्य कोई उपाय नहीं सूझता, मरने में ही लाभ है। मनुष्य मरण काल में ऐसा विचार करता रहता
है। कानों में बहरापन आ गया नेत्रों में देखने की शक्ति भी नहीं रही। स्मृति भी लुप्त हो गई। वाणी में विकलता आ गई शब्द भी नहीं उच्चारण कर सकती। मेरी आयु भी प्राय: समाप्त हो चली। इस प्रकार हाय मैंने मानव जन्म व्यर्थ ही खो दिया। ऐसे विचारों से प्राणों के जाने के समय मानव पश्चाताप करता है लेकिन अब पछताने से क्या लाभ है, पहले ही जागना चाहिये। मनुष्य का प्रमाद मनुष्य के लिये ही कष्टदायी हो जाता है। अत: सदा सावधान रहना चाहिये। वासिष्ठ में लिखा है कि-
यद्यपि भोगों की आसक्ति का लोभ आकाश की लता के फल के समान अत्यन्त मिथ्या है, फिर भी लोभ की विपुलता के कारण वृद्धावस्था आने पर भी अविचार से उसका ही महत्व अज्ञानी समझता है क्योंकि लोभ से जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है। ऐसे मनुष्यों के हृदय में सर्वोत्कृष्ट परमात्मा के स्वरूप का निश्चय करने के लिये जरा भी विचार पैदा नहीं होता। निरन्तर ब्रह्म का
विचार करना तो उनके लिये असंभव है।