हरि केवल एक अधारा, सोइ तारन तिरण हमारा॥ टेक॥
नांमै पंडित पढि गुणि जानूं, नां कुछ ज्ञान विचारा। नां मैं आगम ज्योतिष जानूं, नां मुझ रूप सिंगारा॥१॥ ना तप मेरे इन्द्री निग्रह, नां कुछ तीरथ फिरणां।
देवल पूजा मेरे नाही, ध्यान कछु नहिं धरणां॥ २॥ जोग जुगति कछू नहिं मेरे, ना मैं साधन जानूं।
औषधि मूली मेरे नाही, ना मैं देस वखानूं॥ ३॥ मैं तो और कछू नहिं जानूं, कहौ और क्या कीजै
दादू एक गलित गोविन्द सौं, इहि विधि प्राण पतीजै॥ ४।। न तिरने योग्य को भी वह हरि तार देता है, अपनी कृपा से ऐसा हरि ही मेरा आधार है। मैं पड़ने वाला तथा पढ़ाने वाला पंडित नहीं हूं किन्तु मैं तो अज्ञानी हूँ। न में भविष्य वक्ता हूँ न ज्योति शास्त्र में चतुर हूं। न मैं नाना रूप बनाकर श्रृंगार करने वाला हूं। न मैं इन्द्रिय निग्रह रूप तप करता हूं। न तीर्थों में घूमता हूँ न किसी देवता का पूजन ही करता न किसी का ध्यान करता न योग और युक्तियों को जानता हूं। किन्तु मैं तो सब साधनों से रहित हूं न
मैं औषधियों को जानने वाला वैद्य हूँ न मैं कथावाचक पंडित हूँ। मैं तो कुछ भी साधन नहीं जानता अतः अब आप ही कहिये कि मैं क्या करूं ? मैं तो केवल गोविन्द की भक्ति रस में डूब रहा हूं। अत: सब साधन हीन को भी गोविन्द भगवान् ! अवश्य दर्शन देंगे। ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास
है। इस भजन में परा पूजा का वर्णन है। यह साधनों से नहीं प्राप्त होती। इसमें तो केवल प्रभु का प्रेम ही साधन हैं, नहीं तो सर्व व्यापक सच्चिदानन्द भगवान् की साधनों से कैसे पूजा हो सकती है ? निर्मल परमात्मा को स्नान की आवश्यकता नहीं है। निरंजन को धूप दीप आदि से क्या प्रयोजन है ? जो निजानन्द तृप्त है उसको नैवेद्य की क्या आवश्यकता है, जो वेदवाणी से भी नहीं जाना जा सकता, उसकी स्तोत्रों से क्या स्तुति की जाये ? वह तो परम प्रेमस्वरूपा भक्ति से ही प्राप्त होता है। लिखा है कि ब्रह्म वेत्ताओं को सर्वदा सब अवस्थाओं में भावमयी पूजा एकत्व बुद्धि से करनी चाहिये।
यह ही परापूजा कहलाती है। हे शम्भो ! मेरा आत्मा ही तुम हो। बुद्धि पार्वती जी है। मेरे प्राण आपके गण है, शरीर आपकी कुटिया है। नाना प्रकार की भोग सामग्री आपका पूजोपचार है। निद्रा समाधि है। मेरे चरणों का चलना आपके प्रदक्षिणा है और जो मैं कुछ भी बोलता हूँ वह आपके स्तोत्र हैं। अधिक क्या, मैं जो कुछ भी करता हूं वह सब आपकी आराधना है। इसी को पराभक्ति कहते है ।