शब्द समाना जो रहे, गुरु वाइक बीधा। उनहीं लागा एक सौं, सोई जन सीधा॥टेक॥ ऐसी लागी मर्म की, तन मन सब भूला। जीवत मृतक ह्वै रहे, गह आतम मेला॥१॥ चेतन चितहिं न बीसरे, महा रस मीठा। शब्द निरंजन गह रह्या, उन साहिब दीठा॥२॥ एक शब्द जन उद्धरे, सुनि सहजैं जागे। अंतर राते एक सौं, शर सन्मुख लागे॥३॥ शब्द समाना सन्मुख रहे, पर आतम आगे।
दादू सीझै देखताँ, अविनाशी लागे॥४॥ अत्यन्त श्रद्धाभाव से जो सद्गुरु के वाक्यरूपी अमृत का पान करते हैं, उनके हृदय में के वाक्य-रूपी बाण चुभ जाते हैं। जिससे उनका कल्याण हो जाता है। जो सद्गुरु के वचनों का विचार करता रहता है, उसका मन अहंकार की वक्रता को त्याग कर सरल हृदय वाला हो जाता है। उसके सरल हृदय में गुरु के वाक्य रूपी बाण चुभकर ऐसा आघात करते हैं, जिससे वह शरीर आदि को भूलकर परब्रह्म परमात्मा के अभेद ज्ञान से जीवन्मुक्त हो जाता है। फिर अति मधुर चैतन्य रूपी महारस को चित्त से कभी नहीं भूलता। जो सद्गुरु के अभेद-बोधक वाक्यों को सुनता है, उसको ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। वेद के सार को बोध कराने वाला गुरु का एक ही वाक्य साधक का उद्धार कर देता है। जो ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु के परमार्थ बोधक वाक्यों को सुनता है, वह अनायास ही अज्ञान का नाश करके ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। श्रद्धापूर्वक जो गुरु के पास बैठता है और उनके वचनों का पान करता है, तो उसकी वृत्ति ब्रह्माकार बन जाती है और सदा ब्रह्म में ही उसका अनुराग रहता है। जिसके कारण वह संसार दशा में ही इसी शरीर में अविनाशी ब्रह्म को प्राप्त करके मुक्त हो जाता है।