नैतिकता व मानवीय मूल्यों के अभाव में आज के युवा वर्ग में लोलुपता, भ्रष्टाचार, बेईमानी व अनैतिक जीवन जीने की आदत विकसित हो रही है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भौतिकतावादी जीवन जीने की शैली ने हमारी युवि पीढ़ी को भारतीय मूल्यों से विमुख कर दिया है। देश के निर्माण जो कारक परिवार व समाज उस पर हम ध्यान न देकर राष्ट्र निर्माण की बात करने लगते हैं। जब हमारी पहली सीढ़ी परिवार ही कमजोर है तो राष्ट्र निर्माण की बात करना बेमानी होगा। संयुक्त परिवारों के विखंडन ने लोगो को एकाकी जीवन जीने की तरफ धकेल दिया है। इसके कारण हमारा सभ्य समाज जाना जाता था। जैसे दूसरों के प्रति दया व सहानुभूति, परोपकार की भावना लुप्त हो गई है। "हम" का स्थान "मैं" ने ले लिया है। कोई भी सभ्य समाज को उन्नत की श्रेणी में नहीं माना जा सकता, जहां मानवीय मूल्यों का कोई स्थान न हो। समय के अनुसार बदलाव जरूरी है लेकिन बुनियादी बदलाव कर समाज को खोखला किया जा रहा है। बुनियादी बातो में भ्रष्टाचार, हिंसा, असहिष्णुता, दूसरों का हक छीनना, गलत तरीके से संपति अर्जित करना आदि से दूरी बनाना है। उपरोक्त कृत्य कभी हमारे सभ्य समाज में छूत की बीमारी मानें जाते थे। मानवीय व नैतिकता मूल्यों की वजह से ही भारत पूरे विश्व में श्रेष्ठ माना जाता रहा है लेकिन भौतिकतावाद की इस आंधी के कारण इन मूल्यों में ह्रास देखने को मिल रहा है। युवाओं मे जो कथित रूप से नैतिक मूल्यों का ह्रास देखा जा रहा है, उसके पीछे जो कारक है, उन पर भी चर्चा करना जरुरी हो जाता है। नैतिकता की बात या आकलन करते समय सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व व्यवसायिक पहलूओ को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। सामाजिक की बात करें तो संयुक्त परिवारों का विखंडन व एकाकी जीवन जीने की प्रवृत्ति का अपनाना। राजनीतिक आचार व्यवहार जिस तरह से दूषित हुआ है और किसी भी तरह धन कमाना ही सफलता व मान प्रतिष्ठा का पैमाना हो गया है। आज के परिवेश यदि राजनीतिक पहलू की बात करें तो यह पैसा कमाने का शार्टकट रास्ता हो गया है। चुनाव में जीतने को लेकर वन टाइम ही इनवेस्टमेंट है, उसके बाद तो पैसों की आवक के अनेक रास्ते हैं। इसके साथ ही मुनाफे की होड़ में बाजार जो भौतिकतावादी मूल्यों से भर गया है, उससे युवा वर्ग बहुत ही प्रेरित हुआ है। सामाजिक दृष्टिकोण पर नजर डालें तो इस अर्थ युग मे प्रतिष्ठा के मापदंड बदल गये है। अर्थ के बल पर ऐसे व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा के पात्र बने हुए हैं, जो ऐसे कामों में लिप्त है, जिनको हमारा सभ्य समाज मान्यता नहीं देता है। नैतिक मूल्यों मे जो पतन देखने को मिल रहा है, उसमें साहित्य व इलेक्ट्रॉनिक मिडिया का बहुत योगदान रहा है। हास्य के नाम पर टीवी पर नग्नता परोसी जा रही है। सरस्वती के मंचों से फूहड़ता का नंगा नाच देखने को मिलता है। उच्च कोटि का साहित्य किसी भी सभ्य समाज को दिशा-निर्देश के साथ ही उच्च विचारों के पोषण में विशेष योगदान रखता है लेकिन नैतिकतावादी साहित्य का स्थान अश्लील साहित्य ने ले लिया है। हमारा समाज पहले से अर्थ की दृष्टि से जरूर सुदृढ़ हुआ है लेकिन जिन मूल्यों को लेकर पूरे विश्व में धाक थी उन मूल्यों से हम विमुख हो गये है।
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