धरणीधर बाह्या धूतो रे, अंग परस नहिं आपे रे। कह्यो अमारो कांई न माने, मन भावे ते थापे रे॥वाहीवाही ने सर्वस लीधो, अबला कोइ न जाणे रे। अलगो रहे येणी परि तेड़े, आपनड़े घर आणे रे॥१॥ रमी रमी रे राम रजावी, केन्हों अंत न दीधो रे। गोप्य गुह्य ते कोई न जाणै, एह्वो अचरज कीधो रे॥२॥ माता बालक रुदन करंता, वाहीवाही ने राखे रे। जेवो छे तेवो आपणपो, दादू ते नहिं दाखे रे॥३॥ इस पृथ्वी को धारण करने वाले परमात्मा ने हम सब को ठग रखा है क्योंकि उन्होंने अपनी माया के द्वारा हमारे मन में मायिक पदार्थों से ही प्रेम पैदा कर रखा है। इसलिये हम सब ठगे गये। अपना स्वरूप तो अंशांश भी किसी को नहीं दिखलाते और हमरी प्रार्थना भी नहीं सुनते हैं। वे प्रभु अपने मन की ही करते हैं। हमारे मन को ठग कर हमारा सर्वस्व हरण कर लिया। निर्बलों पर भी ध्यान नहीं देते। जीवों के हृदय में रहते हुए भी स्वयं अलग रह कर जीवों के मन में विषयों की ही प्रेरणा करते हैं। अतः जीवों का मन विषयों में ही आसक्त रहता है। हमारे साथ क्रीड़ा करते हुए सब को प्रसन्न करते हैं परन्तु अपना स्वरूप किसी को भी नहीं दिखाते हैं। स्वयं हृदय-गुहा में गुप्त ही रहते हैं। उनके आदि, अन्त को कोई नहीं जान सकता किन्तु वे प्रभु सब को जानते हैं। यह ही सबसे बड़ा आश्चर्य है। जैसे माता बालक को प्रसन्न करती हैं, ठगती है, उसको कुछ देती नहीं, ऐसे ही भगवान् भी अपनी माया से जीवों को ठगते हैं, अपना वास्तविक स्वरूप किसी को भी नहीं दिखलाते। भाव यह है कि जब तक भेद-दृष्टि रहती है, तब तक अद्वैत-ज्ञान नहीं होता और अद्वैत-ज्ञान होने पर जीव-ब्रह्म का ऐक्य होने से कौन किसको देखे ? वेदान्तसंदर्भ में लिखा है कि-नाम रूपात्मक सारी सृष्टि वाणी का ही विकार है, ब्रह्म तो निःशब्द है। अतः हे मूढ देह में स्थित उस ब्रह्म को क्यों नहीं देखता ? जैसे सूर्य और उसकी किरणों में, पुष्प और गन्ध में, तथा जल और उसकी तरंगों में नाम मात्र का भेद प्रतीत होता है, वास्तव में सूर्य और किरण, पुष्प और गन्ध, जल और तरंग एक ही है। ऐसे मायाब्रह्म का भेद भी काल्पनिक ही है। अतः सब कुछ ब्रह्म ही है और तुम भी निःसंशय ब्रह्म ही हो। अतः अपने मन को जीतो, मन को जीतने पर सब कुछ ब्रह्म ही दिखता है। कारण कि मन से भेद पैदा होता है, मन के जीतने पर सब ब्रह्म ही प्रतीत होता है और ब्रह्ममूलक जगत् होने से भी यह जगत् ब्रह्ममय ही है।
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