वो रिज़ल्ट वाला अख़बार अब नहीं आता

AYUSH ANTIMA
By -
0


वो ज़माना गुज़र गया, अब बच्चों के मार्क्स 95% से भी ऊपर आने पर भी कुछ ख़ास ख़ुशी नहीं होती और उस जमाने में 36% मार्क्स वाला भी शिक्षक होने की योग्यता रख, आज के जैसे अफ़सरों को पढ़ा रहा होता था क्योंकि तब मार्क्स नहीं बल्कि ज्ञान बाँटा जाता था। रिजल्ट तो उस जमाने में आते थे, जब पूरे बोर्ड का रिजल्ट 17% हो और उसमें भी आपने वैतरणी तर ली हो। डिवीजन के मायने, परसेंटेज कोई पूछे तो पूरे कुनबे का सीना चौड़ा हो जाता था। 
दसवीं का बोर्ड: बचपन से ही इसके नाम से ऐसा डराया जाता था कि आधे तो वहाँ पहुँचने तक ही पढ़ाई से सन्यास ले लेते थे।जो हिम्मत करके पहुँचते, उनकी हिम्मत गुरुजन और परिजन पूरे साल ये कहकर बढ़ाते, अब पता चलेगा बेटा, कितने होशियार हो, नवीं तक तो गधे भी पास हो जाते हैं। रही-सही कसर हाईस्कूल में पंचवर्षीय योजना बना चुके साथी पूरी कर देते...भाई, खाली पढ़ने से कुछ नहीं होगा, इसे पास करना हर किसी के भाग्य में नहीं होता, अब हमें ही देख लो..
और फिर, जब रिजल्ट का दिन आता। ऑनलाइन का जमाना तो था नहीं, सो एक दिन पहले ही शहर के दो-तीन हीरो (ये अक्सर दो पंचवर्षीय योजना वाले होते थे), अपनी साइकिल या राजदूत मोटर साईकल से शहर चले जाते, फिर आधी रात को आवाज सुनाई देती..."रिजल्ट-रिजल्ट"।
पूरा का पूरा मुहल्ला उन पर टूट पड़ता। रिजल्ट वाले अखबार को कमर में खोंसकर उनमें से एक किसी ऊँची जगह पर चढ़ जाता, फिर वहीं से नम्बर पूछा जाता “रोल नं.बोलो अपना” और रिजल्ट सुनाया जाता “पाँच हजार एक सौ तिरासी फेल, चौरासी फेल, पिचासी फेल, छियासी सप्लीमेंट्री.....कोई मुरव्वत नहीं..तरीक़े से पूरे मुहल्ले के सामने बेइज्जती (और अब बच्चों को किसी के सामने ग़लत बात पर डाँटना भी बुरा माना जाता है)। रिजल्ट दिखाने की फीस भी डिवीजन से तय होती थी, लेकिन फेल होने वालों के लिए ये सेवा पूर्णतया निशुल्क होती। जो पास हो जाता, उसे ऊपर जाकर अपना नम्बर देखने की अनुमति होती। टॉर्च की लाइट में प्रवेश-पत्र से मिलाकर नम्बर पक्का किया जाता और फिर 10, 20 या 50 रुपये का पेमेंट कर पिता-पुत्र एवरेस्ट शिखर आरोहण करने के गर्व के साथ नीचे उतरते। कुछ व्यवहार कुशल परिजन भी होते थे, जिनका नम्बर अखबार में नहीं होता, वो अपने बच्चे को कुछ ऐसे ढाँढस बँधाते... “अरे, कुम्भ का मेला थोड़ी है, जो बारह साल में आएगा, अगले साल फिर दे देना एग्जाम, चलो अब रो क्यों रहे हो"। पूरे मोहल्ले में रतजगा होता। चाय के दौर के साथ चर्चाएं चलती, “अरे फलाने के लड़के ने तो पहली बार में ही बाज़ी मार दी, बहुत आगे जाएगा”।
आजकल बच्चों के मार्क्स भी तो ‘फारेनहाइट’ में आते हैं।
99.2, 98.6, 98.8.......और उस जमाने में मार्क्स ‘सेंटीग्रेड’ में आते थे....37.1, 38.5, 39%
हाँ यदि किसी के मार्क्स 50% या उसके ऊपर आ जाते तो लोगों की खुसर-फुसर .....नकल की होगी, इतना मेहनती भी थोड़ी था, जो इत्ते मार्क्स आते“।
सच में, ‘रिजल्ट’ तो उस जमाने में ही आता था। अब तो बस नम्बर आते 99.99%
*साभार*

Post a Comment

0Comments

Post a Comment (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!