झूठा कलिजुग कह्या न जाइ, अमृत कौं विष कहै बनाइ॥
धन कौं निर्धन, निर्धन कौं धन, नीति अनीति पुकारै। निर्मल मैला, मैला निर्मल, साधु चोर करि मारै॥ कंचन काच, काच कौं कंचन, हीरा कंकर भाखै।
माणिक मणियां, मणियां माणिक, साच झूठ करि नाखै॥
पारष पत्थर, पत्थर पारस, कामधेनु कामधेनु पशु गावै।
चन्दन काठ, काठ कौं चन्दन, ऐसी बहुत बनावै॥ रस कौं अनरस, अनरस कौं रस, मीठा खारा होई। दादू कलिजुग ऐसा बरतै, साचा बिरला कोई॥
अर्थातः मिथ्या दाम्भिक व्यवहार वाले इस कलियुग का वाणी से वर्णन नहीं हो सकता। इस कलियुग में प्राय: सारे प्राणी वेद रूप सत्यवाणी को भी जो हित अर्थ का बोधन करती है और शास्त्रों से भी प्रमाणित है, उसको भी मिथ्या कहते हैं। जो भक्त रामधन का धनी है, उसको भी निर्धन कहकर तिरस्कार करते है और जो भक्तिधन से हीन है और धन को ही धर्म समझता है, ऐसे मनुष्य को धनवान् कहते हुए प्रतिष्ठा करते हैं। उत्तम नीति को अनीति बतलाते हैं, जो भक्ति से पवित्र है लेकिन जाति से नीच है, उस भक्त का तिरस्कार करते हैं।
जो अनेक दुर्गुणों से मैला है लेकिन उत्तम जाति का होने से उसको निर्मल मानते हैं। साधु पुरुषों को चोर बताकर ताड़ना देते हैं। सद्गुणों से श्रेष्ठ कंचन की तरह सुशोभित मनुष्य को काच की तरह नि:सार समझते है।
जो गुणहीन, दम्भी मिथ्याभाषी तथा ऊपर से काच की तरह सुन्दर वेशभूषा से अच्छा लगता है, उसको सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। बहुत मूल्य से भी जो प्राप्त नहीं हो सकता, ऐसे हीरे की तरह सुन्दर हरिनाम को पत्थर की तरह तुच्छ समझ कर त्याग देते हैं। माणिक्य की तरह सद्गुण संपन्न श्रेष्ठ विचारवान् मनुष्य को काठ की तरह शुष्क विचार वाला बतलाते हैं। जो उत्तम विचारों से शून्य स्वार्थसिद्ध करने में लगा है, ज्यादा बोलता है, उसका माणिक्य की तरह बड़ा ही समादर करते हैं। सत्य बोलने वाले को भी असत्य बोलने वाला समझकर उसका कोई विश्वास नहीं करता। पारस के सदृश सद्गुरु को भी सामान्य मनुष्य समझते हैं, जो सामान्य मनुष्य है, जिसमें कोई गुण-विशेष नहीं, उसका पारस की तरह बहुत आदर करते हैं। कामधेनु को भी सामान्य पशु समझते हैं। चन्दन की तरह अनेक गुणों की सुगन्धि वाले मनुष्य को काष्ठ की तरह निर्गुण समझते हैं। जो झूठ बोलने वाला सर्व धर्म बहिष्कृत मनुष्य है। उसका चन्दन की तरह समादर करते हैं। जो रामधन सरस है (आनन्द का देने वाला) उसको भी नीरस कहते हैं। जो मदिरा आदि नीरस पदार्थ हैं, उनको वास्तविक रसवाला कहते हैं। जो श्रौतस्मार्त आचार तथा वर्णाश्रम धर्म प्राणियों के लिये हितकर होने से मधुर हैं, उनको भी कटु समझकर त्याग देते हैं। यह कलियुग ऐसा युग है कि इसमें श्रौतस्मार्त आचारवान् विरले ही मिलते हैं।
वायुपुराण में लिखा है कि-कलयुग के धर्मों से उत्पन्न होकर प्राय: सभी प्राणी म्लेच्छ, अधार्मिक, पाखण्डी बन जायेंगे साधनहीन, निर्धन, व्याधि और शोक से पीड़ित हो जायेंगे। वर्षा न होने से दुःखी, एक दूसरे को परस्पर में मारने वाले तथा अनाथ हो जायेंगे और नगर तथा ग्रामों को त्याग कर वन में रहने लगेंगे, क्योंकि व्यवसायरहित होकर दु:खी रहने लगेंगे।