पूजा-भक्ति सूक्ष्म सौंज देव निरंजन पूजिये, पाती पंच पढ़ाइ।तन मन चन्दन चर्चिये, सेवा सुरति लगाइ॥२७९॥
भ्रम विध्वंस भक्ति भक्ति सबको कहै, भक्ति न जाने कोय। दादू भक्ति भगवंत की, देह निरंतर होय॥२८०॥ देही माहीं देव है, सब गुण तैं न्यारा। सकल निरंतर भर रह्या, दादू का प्यारा॥२८१॥
संतप्रवर महर्षि श्रीदादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि अपनी पाँचों इन्द्रियाँ तथा मन वाणी शरीर भगवान को समर्पण कर निरञ्जन देव की अखण्ड चिन्तनरूप सेवा करें।
श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है - भक्त मुझ में ही अपने मन को लगाकर नित्य योग में युक्त हो परम श्रद्धा से मेरी उपासना करता है, वह मुझे बहुत उचित लगता है। अपनी बुद्धि तथा मन मुझ में ही लगाकर मुझको भजने वाले यहाँ से आगे जाकर अवश्य मिल जायेगे-इसमें कोई सन्देह नहीं। हे अर्जुन ! तूं सभी कर्म शुद्ध हृदय से मुझमें अर्पित कर मेरे अनुकूल हुआ, कर्मयोग का अवलम्बन कर निरन्तर मुझ में ही अपना चित्त लगाये रख। श्रीदादूजी महाराज कहते है कि ‘भक्ति करो, भक्ति करो'- इस कथनमात्र से भक्ति नहीं होती, किन्तु आन्तरिक भावमय साधनों द्वारा ही स्वहृदयस्थ परमात्म की भक्ति होती है। इसलिये साधक को साधननिष्ठ होना चाहिये।
मन द्वारा हरि-सेवाकर वाणी और मन से अगम्य परमात्मा को साक्षात् प्राप्त हो गये।” अतः साधक को साधननिष्ठ होना चाहिये। मन के द्वारा हरि-सेवा कर के मन-वाणी के अविषय परमात्मा को बहुत से साधक प्राप्त हो गये। जो हरि-सेवा का भाव अपने हृदय में धारण करता है। उसको अन्त:शुद्धि तथा बहि: शुद्धि और शान्ति आदि गुण स्वत: ही प्राप्त हो जाते हैं"। मेरा प्रिय प्रभु देहस्थित रहता हुआ भी सर्वगुण रहित, ज्योतिर्मय तथा सभी शरीरों में स्थित हैं। “परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है, वह स्वयम्प्रकाश, सबका स्वामी, जिसमें सभी भूत निवास करते हैं, जो स्वराट् और सर्वव्यापी है, वही मैं हूँ। वह निर्गुण, निष्क्रिय, नित्य, निर्विकल्प, निरञ्जन, निर्विकार एवं निराकार है, वही मैं हूँ ।