जय जय जय जगदीश तूं, तूं सम्रथ सांईं। सकल भवन भानें घडै, दूजा को नांहीं॥ काल मींच करुणा करै, जम किंकर माया।
महा जोध बलवन्त बली, भय कंपै राया॥ जरा मरण तुम्ह थै डरै, मन कौं भय भारी। काम दलन करुणामई, तूं देव मुरारी॥ सब कंपैं करतार थें, भव बन्धन पासा। अरि रिपु भंजन भयगता, सब विघ्न विनासा।। सिर ऊपर सांई खड़ा,सोई हम माहीं। दादू सेवक राम का, निर्भय न डराहीं॥संतप्रवर श्रीदादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि हे जगदीश्वर ! आप सबके स्वामी करने में, न करने में, अन्यथा करने में, सर्वसमर्थ हैं। आपकी जय हो, जय हो। त्रिलोकी की रचना, संहार आपसे ही होते हैं, दूसरा कोई नहीं है। काल, मृत्यु, यमदूत और माया आपके आगे आर्तस्वर से सदा विनय और नमस्कार करते रहते हैं। बड़े-बड़े योद्धा, बलवानों में जो बलवान् है, वे भी आपके भय से कांपते हैं। यह मन भी आपके भय से दूर-दूर दौड़ रहा है। हे मुरारे ! आप काम को जलाने वाले तथा दयामय है। सृष्टि के बनाने वाले! आपसे सब भयभीत रहते हैं। आप संसार के बन्धन को काटने वाले तथा बाहर-भीतर के काम-क्रोध आदि शत्रुओं के विनाशक हैं और को दूर करते हैं। आपकी कृपा से ही आपके भक्त संसार में निर्भय विचरण करते हैं। आप सर्व शिरोमणि हैं। प्राणियों के अन्दर भी आप ही विराजते हैं। राम भक्त सदा निर्भय रहते हैं। अत: सबको राम की ही भक्ति करनी चाहिये। कठ में लिखा है कि-परब्रह्म परमेश्वर से निकला हुआ, यह जो कुछ भी संपूर्ण जगत् है, वह उस प्राणस्वरूप परमेश्वर में ही चेष्टा करता है। इसे उठे हुए बज्र के समान महान् भयस्वरूप परमेश्वर को जो जानता है, वह अजर अमर बन जाता है। इसी के भय से अग्निदेव तपता है। इसके भय से सूर्य तपता है। इन्द्र, वायु और पांचवां मृत्युदेव इसके भय से ही अपने-अपने कर्म में दौड़-दौड़कर प्रवृत्त हो रहे हैं। संहार-काल में जिस परमेश्वर के ब्राह्मण, क्षत्रिय अर्थात् प्राणिमात्र भोजन बन जाते हैं, सबका संहार करने वाली मृत्यु भी भोज्य वस्तु के साथ लगाकर खाने वाली तरकारी बन जाती है, वह परमेश्वर जहाँ जैसा है उसको ठीक-ठीक कौन जान सकता है ? हे गार्गि ! उसी अक्षर ब्रह्म के शासन में सूर्य चन्द्रमा भी रहते हैं। कल्पपर्यन्त जीने वाले लोक तथा लोकपाल भी उसके भय से भयभीत रहते हैं। अद्भुतरामायण में लिखा है- हे हनुमन् !मैं संपूर्ण लोकों का एक मात्र स्रष्टा, पालक तथा संहारक, सबका आत्मा, सनातन परमात्मा हूँ। मैं समस्त वस्तुओं के भीतर रहने वाला अन्तर्यामी आत्मा तथा सबका पिता हूँ। सभी जगत् मेरे भीतर स्थित है, मैं इस संपूर्ण जगत् के भीतर नहीं हूँ। जो सपूर्ण भूतों के संहारक भगवान् काल रुद्र हैं, वे भी मेरे ही शरीर में हैं तथा मेरी ही आज्ञा से सदा संहार-कार्य में लगे रहते हैं। आदित्य, वसु, रुद्र, मरुद्गण अश्विनीकुमार तथा अन्य संपूर्ण देवता मेरे शासन में रहते हैं। गन्धर्व, नाग, यक्ष, सिद्ध, साध्य, चारण, भूत, यक्ष, राक्षस तथा पिशाच भी मुझ स्वयम्भू के शासन में स्थित हैं। कलाकाष्ठा, निमेष, मुहूर्त, दिवस, क्षण, ऋतु, वर्ष, मास, और पक्ष भी मुझ प्रजापति के शासन में स्थित हैं।
युग, मन्वन्तर, परार्ध पर तथा अन्यान्य काल-भेद भी मेरी ही आज्ञा में स्थित हैं। चार प्रकार के स्थावर और जंगम प्राणी मुझ स्वयम्भू की आज्ञा से ही चलते हैं।