काल काया गढ़ भेलसी, छीजे दशों दुवारो रे। देखतड़ां ते लूटिये, होसी हाहाकारो रे॥ नाइक नगर नें मेल्हसी, एकलड़ो ते जाये रे। संग न साथी कोइ न आसी, तहँ को जाणे किम थाये रे॥१॥ सत जत साधो माहरा भाईड़ा, कांई सुकृत लीजे सारो रे। मारग विषम चालिबो, कांई लीजे प्राण अधारो रे॥२॥ जिमि नीर निवाणा ठाहरे, तिमि साजी बांधो पालो रे।
समर्थ सोई सेविये, तो काया न लागे कालो रे॥३॥ दादू मन घर आणिये, तो निहचल थिर थाये रे।प्राणी नें पूरो मिलै, तो काया न मेल्ही जाये रे॥४॥ सारे विश्व को खाने वाला यह काल एक दिन इसको या नगरी को भी तोड़ डालेगा। नेत्र, श्रोत्र आदि इन्द्रिय-द्वारों से यह शरीर प्रतिक्षण क्षीण हो रहा है। अतः यह काल तेरी आयु को भी लेकर चला जायगा। काया का मालिक जीव भी एक दिन इस नगरी को छोड़ कर अपने कर्मानुसार अकेले ही परलोक में चला जायगा। वहां पर इसकी क्या दशा होगी ? यह कौन जाने ? अतः सभी प्राणियों को ब्रह्मचर्यादि साधनपूर्वक सुकृत का साधन करना चाहिये। परलोक में जाने का मार्ग भी बहुत लंबा चौड़ा दुस्तर है। अतः रास्ते के लिये कोई अवश्य पुण्य-साधन-पाथेय के रूप में करना चाहिये। जैसे जल निम्न भूमि में एकत्रित होता है, वैसे ही भक्ति भी साधन-संपन्न अन्तःकरण से होती है। जीवन-जल की रक्षा के लिये भजन ही बांध है। इस प्रकार हे जीव ! तू साधन संपन्न होकर हरि को भजेगा तो तेरे को काल का भय भी नहीं रहेगा। निश्चल मन ही ब्रह्म में स्थिर हो सकता है। अतः अपने मन को जीतने के लिये उपाय का विचार कर। जब साधक का मन पूर्ण ब्रह्म में स्थिर हो जाता है तो उस साधक के प्राण कहीं भी नहीं जाते, किन्तु यहां ही तत्त्वों में तत्त्व मिल जाते हैं। शरीर रहित उस आत्मा को प्रिय (सुख) अप्रिय (दुःख) नहीं स्पर्श कर सकते। जैसे शुद्ध पानी में दूसरे शुद्ध पानी को मिला देने पर वह शुद्ध रूप ही हो जाता है, उसी प्रकार उस ब्रह्म को जानने वाला मुनि भी आत्मस्वरूप हो जाता है।