*भक्ति निष्काम*
दर्शन दे दर्शन दे, हौं तो तेरी मुक्ति न मांगूं। सिद्धि न मांगू ऋद्धि न मांगू, तुम्हहीं मांगूं गोविन्दा॥ जोग न मांगू भोग न मांगू, तुम्हहीं मांगू रामजी। घर नहीं मांगू वन नहीं मांगू, तुम्हहीं मांगू देवजी॥
दादू तुम बिन और न मांगू, दर्शन मांगू देहुजी।। संतप्रवर श्री दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि सामीप्य, सारूप्यादि जो मुक्ति की चार अवस्थायें हैं, उनमें से मैं कुछ भी नहीं चाहता। मैं तो आपके दर्शन चाहता हूं। अत: दर्शन देने की कृपा कीजिये और न ऋद्धि-सिद्धि, योग, भोग, गृहवास, वनवास ही चाहता हूं, किन्तु मैं तो जो आपके स्वरूप का साक्षात्काररूप दर्शन है, वह चाहता हूं क्योंकि ऋद्धि-सिद्धि, भोग, स्वर्गादि-लोक, अपवर्ग यह सब भगवान् की भक्ति से स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं यदि भक्त चाहे तो। अत: इनको न मांग कर भगवान् की भक्ति की कामना करनी चाहिये। शिक्षापात्र में- भक्ति के मार्ग में कृपामात्र ही उत्तम साधन है। इस कृपा से ही सकल सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं, इसमें संशय नहीं है। भागवत में- द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव आदि भगवदनुग्रह के बल पर ही स्थित हैं। यति भगवान् थोड़ी सी भी उपेक्षा कर दें तो कुछ भी शेष न रहे।