सुख दुःख संसा दूर किया, तब हम केवल राम लिया॥ सुख दुःख दोऊ भरम विचारा, इन सौं वंध्या है जग सारा।मेरी मेरी सुख के ताई, जाइ जन्म नर चेत नाही।
सुख के तांई झूठा बोलै, बांधे बन्धन कब हुं न खोले। दादू सुख दुख संगि न जाई, प्रेम प्रीति पिव सौं ल्यों जाइ। संतशिरोमणि श्री दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि मैने साधन काल में साधनजन्य दुःखों को तथा शीतोष्णादिजन्य सुख दुःखों को नगण्य समझता हुआ प्रेम से प्रभु की भक्ति करी है, इसी से मेरे को आत्मानुभव हुआ है। यह सारा संसार सुख- दुःख देने वाले विकारों से बंधा हुआ है। सांसारिक सुख के लिये यह मेरा, यह तेरा, ऐसी भावना करता हुआ अपने जीवन को जीव नष्ट कर रहा है। सावधान नहीं होता, अपने कल्याण के लिये चेष्टा भी नहीं करता है। किन्तु विषय सुख के लिये मिथ्या बोलता रहता है। ज्ञान द्वारा अपने कर्म बन्धनों को भी नहीं काटता। यह नहीं भूलना चाहिये कि सुख दुःख किसी के भी साथ नहीं जाते। अत: प्रेम से भजन करो। योगवासिष्ठ में कहा है कि “अपनी चित्त की वासना के अनुसार ये लोग संसार में जल तरङ्ग की तरह आते हैं और जाते हैं। जन्म मरण अज्ञानी को बांधते हैं, ज्ञानी को नही। शरीर का अविर्भाव और तिरोभाव ही जन्म- मरण हैं, ऐसा जो जानता है वह उनसे नहीं बंधता किन्तु अज्ञानी उनमे रमता है, अत: उसी को यह बांधते हैं। जैसे घडे के नष्ट हो जाने पर भी उसमें रहने वाला आकाश कभी नष्ट नहीं होता। इसी प्रकार शरीर को सजाने या दूषित होने पर आत्मज्ञानी उससे सुखी दुःखी नहीं होता। मैं कोन हूं ? यह दृश्य जगत् कैसे हुआ ? इन सब बातों का विवेकपूर्वक विचार नहीं होता तभी तक सह संसार का आडम्बर अन्धकार के समान खड़ा है। मिथ्या भ्रमों से यह उत्पन्न शरीर आपत्ति का घर है। जो आत्मभावना के द्वारा इस दृश्य को नहीं देखता। अर्थात् यह दृश्य है ही नहीं आत्मा ही सब कुछ है, ऐसा देखता है वह ही यथार्थ रूप से देखने वाला है। देश और कालवश शरीर में उत्पन्न सुख- दुःख को भ्रम रहित दृष्टि से ये मेरे नहीं है इस तरह देखता है वह ही यथार्थ दृष्टा है।