मन रे, राम रटत क्यों रहिये ! यहु तत बार बार क्यों न कहिये॥ जब लग जिह्वा वाणी, तो लौं जपिले सारंगपाणी। जब पवना चल जावे, तब प्राणी पछतावे॥१॥ जब लग श्रवण सुणीजे, तो लौं साध शब्द सुण लीजे। श्रवणों सुरति जब जाई, ए तब का सुणि है भाई॥२॥ जब लग नैंन हुँ पेखे, तो लौं चरण-कमल क्यों न देखे। जब नैनहुं कछु न सूझे, ये सब मूरख क्या बूझे॥३॥ जब लग तन मन नीका, तो लौं जपिले जीवन जीका। जब दादू जीव आवै, तब हरि के मन भावै॥४॥ हे मन ! तू धन के मद से अंधा होकर राम नाम साधन को क्यों भूल रहा है। यह-साधन तो सब साधनों से श्रेष्ठ है। अतः प्रतिक्षण रामनाम चिन्तन ही करना चाहिये। जब तक तेरी जिव्हा शक्ति ठीक है, तब तक तू राम नाम जप ले, अन्यथा प्राणान्त में पश्चाताप करना पड़ेगा। जब तक तेरी श्रवणेन्द्रिय काम कर रही है, तब तक तुम सन्तों के उपदेशों को सुनो। शक्ति के नष्ट होने पर तू क्या कर सकेगा। जब तक नेत्रों में देखने की शक्ति है, तब तक तू भगवान् के चरण कमलों का दर्शन कर तथा सन्तों के चरणों को देखले। अन्यथा इन्द्रियों की शक्ति के नष्ट हो जाने पर तू कैसे श्रवण, मनन, दर्शन कर सकेगा। स्वस्थ मन वाणी से हरि नाम जप का साधन कर, तब ही तू परमात्मा का प्यारा होगा। भागवत में लिखा है कि –
जो मनुष्य इन वर्ण, धर्मों, आश्रमों में रहने वाला है और हरि को नहीं भजता है, प्रत्युत उनका अनादर करता है, वह स्थान, वर्ण, आश्रम और मनुष्य योनि से गिर अजता है। यह शरीर मृतक ही है, इसके सम्बन्धी भी मिथ्या ही हैं। जो अपने शरीर से तो प्रेम करता है, दूसरे शरीर में रहने वाले सर्वशक्तिमान् भगवान् से द्वेष करता है, उन मूर्खों का अधःपतन हो जाता है। अज्ञान को ही ज्ञान मानने वाले आत्मघातियों को कभी शान्ति नहीं मिलती। काल भगवान् उनके मनोरथों पर पानी फेरते रहते हैं। उनके कर्मों की परम्परा नहीं मिटती और उनके हृदय की जलन, विषाद कभी नहीं मिटेंगे। जो लोग अन्तर्यामी भगवान् कृष्ण से विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्रम करके जो स्त्री, पुत्र, धन आदि इकट्ठे करते हैं, उनको अन्त में सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहने पर भी विवश होकर नरक में जाना पड़ता है, अतः भगवान् का भजन करना चाहिये।