बिहार की राजनीति एक बार फिर उस मोड़ पर खड़ी है, जहाँ सत्ता की कुंजी किसी एक पार्टी के पास नहीं, बल्कि गठबंधन की जोड़-घटाना पर निर्भर करती है और जब बात गठबंधन की होती है, तो इस खेल के सबसे अनुभवी खिलाड़ी माने जाते हैं नीतीश कुमार। वे पिछले दो दशकों में बार-बार यह साबित कर चुके हैं कि जब भी बिहार की राजनीति अस्थिर होती है, उसकी डोर अंततः उनके ही हाथों में आकर सुलझती है। वर्तमान चुनाव परिणामों के बाद ऐसी स्थिति बन रही है कि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल रहा। भाजपा, राजद और जद (यू)—तीनों के बीच शक्ति का संतुलन टूटा नहीं है और यही संतुलन नीतीश कुमार की सबसे बड़ी ताकत बन सकता है। नीतीश भले ही सीटों के हिसाब से सबसे बड़े दल के नेता न हों, पर वे ऐसे नेता हैं, जिनके बिना कोई स्थायी सरकार बन पाना मुश्किल दिखता है। यही स्थिति उन्हें फिर से मुख्यमंत्री पद की दौड़ में सबसे आगे ला देती है।
राज्य की राजनीतिक परिस्थिति को देखते हुए नीतीश कुमार की रणनीति दो स्तरों पर काम करती दिख रही है। पहला, वे प्रदेश में राजद के साथ गठबंधन कर सकते हैं ताकि बिहार में बहुमत का समीकरण तैयार हो सके। दूसरा, वे केन्द्र में भाजपा को समर्थन देकर दिल्ली से बेहतर संबंध बनाए रख सकते हैं। यह दोहरी नीति भले विरोधाभासी लगे, लेकिन नीतीश कुमार की राजनीति का यही मूल स्वभाव है—विरोधी विचारधाराओं के बीच संतुलन बनाकर सत्ता में बने रहना। राजद से संभावित गठबंधन उनके लिए नया अनुभव नहीं है। वे पहले भी लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव दोनों के साथ सरकार बना चुके हैं। विचारधारात्मक मतभेदों के बावजूद उन्होंने सत्ता साझा की और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपनी पकड़ बनाए रखी। इस बार भी वही स्थिति दोहराई जा सकती है—तेजस्वी यादव सत्ता में साझेदार बनेंगे, लेकिन शीर्ष पद नीतीश के पास रहेगा। दरअसल, यह गठबंधन वैचारिक नहीं बल्कि राजनीतिक सुविधा का गठबंधन होगा, जिसमें दोनों पक्ष एक-दूसरे की जरूरत हैं।
दूसरी ओर, केन्द्र में भाजपा से टकराव की बजाय संवाद बनाए रखना नीतीश के लिए व्यावहारिक कदम होगा। बिहार की आर्थिक स्थिति ऐसी है कि केन्द्र से सहयोग के बिना राज्य की योजनाएँ ठहर सकती हैं। इसलिए नीतीश यह जानते हैं कि दिल्ली से अच्छे संबंध बनाए रखना राज्यहित में भी है और उनके राजनीतिक भविष्य के लिए भी। इसीलिए वे सम्भवतः भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार को परोक्ष या मुद्दों के आधार पर समर्थन देने की नीति अपनाएँगे। इससे उन्हें दोहरा लाभ मिलेगा—राजद से गठबंधन कर वे बिहार में मुख्यमंत्री बने रहेंगे और भाजपा को समर्थन देकर केन्द्र की नाराज़गी से भी बचेंगे। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह दोहरा समीकरण नीतीश की पुरानी रणनीति का विस्तार है। वे हर बार ऐसी स्थिति बनाते हैं जहाँ सत्ता के बिना कोई भी दल सुरक्षित महसूस न करे, और अंततः सभी को उनकी शर्तों पर सहमति बनानी पड़े। यही कारण है कि उन्हें किंगमेकर नहीं, बल्कि किंग विदाउट मेजॉरिटी कहा जाता है। जनता भले उनकी बार-बार की पलटियों पर नाराज़ हो, लेकिन यह भी सच है कि हर बार अस्थिरता के बीच वही स्थिर चेहरा बनकर सामने आते हैं। नीतीश अब विचारधारा नहीं, बल्कि स्थायित्व के प्रतीक बन चुके हैं। वे जानते हैं कि बिहार में वोट किसी एक दल के नहीं, बल्कि गठबंधन की स्थिरता के पक्ष में पड़ते हैं। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि चुनाव परिणामों में कोई दल स्पष्ट बहुमत नहीं ला पाता, तो नीतीश कुमार फिर मुख्यमंत्री बन सकते हैं—प्रदेश में राजद के सहयोग से और केन्द्र में भाजपा की सहमति से। यही नीतीश कुमार का राजनीतिक कौशल है। एक ओर सत्ता में साझेदारी, दूसरी ओर सत्ता से सुरक्षा।
संक्षेप में कहा जाए तो नीतीश कुमार आज भारतीय राजनीति के सबसे व्यावहारिक संतुलनकारी नेता हैं। वे न पूरी तरह राजद के हैं, न पूरी तरह भाजपा के। वे सत्ता के हैं और बिहार की सत्ता अब भी उनकी समझदारी के बिना पूरी नहीं हो सकती। राजनीति की यह नई स्थिति उनके पुराने सूत्र को फिर से साबित करती है। जहाँ किसी को बहुमत न मिले, वहाँ संतुलन ही बहुमत है।
*@ रुक्मा पुत्र ऋषि*