भाजपा को नहीं मिल रहा राष्ट्रीय अध्यक्ष: संघ-भाजपा में असहमति का दौर

AYUSH ANTIMA
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भारतीय जनता पार्टी के भीतर इन दिनों सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि पार्टी का नया राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन होगा। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने पिछले एक दशक में भाजपा को एक अजेय संगठन में बदला, परंतु अब जब अध्यक्ष पद का नया चुनाव होना है, तो संघ और भाजपा के बीच असहमति खुलकर सामने आ रही है। यह टकराव वैचारिक नहीं, बल्कि संगठनात्मक और रणनीतिक दिशा को लेकर है। भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष जेपी नड्डा का कार्यकाल बढ़ाया गया था ताकि लोकसभा चुनावों तक संगठन स्थिर रहे। अब जबकि सरकार फिर से सत्ता में लौट आई है, संघ यह चाहता है कि पार्टी का नेतृत्व ऐसा चेहरा संभाले, जो जमीनी स्तर पर संगठन को पुनः सक्रिय कर सके। वहीं भाजपा का नेतृत्व ऐसा व्यक्ति चाहता है, जो प्रधानमंत्री मोदी की टीम के साथ पूरी तरह तालमेल बिठा सके। संघ की ओर से कई नामों पर विचार हुआ है—जैसे दत्तात्रेय होसबोले के नज़दीकी रहे भूपेंद्र यादव, केन्द्रीय मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान और संगठन से आए विनय सहस्रबुद्धे। ये सभी संघ की वैचारिक नर्सरी से निकले चेहरे हैं। वहीं पार्टी के भीतर मुरलीधर राव, ओम माथुर और अनुराग ठाकुर जैसे नाम भी उभर रहे हैं, जिनकी संगठनात्मक पहचान मजबूत है। संघ चाहता है कि अध्यक्ष ऐसा हो जो मोदी-शाह की राजनीतिक शैली से अलग होकर पार्टी के मूल कार्यकर्ताओं को फिर से सशक्त बनाए। उसके अनुसार भाजपा की जीत अब सिर्फ मोदी की लोकप्रियता पर निर्भर नहीं रह सकती; पार्टी को विचार और कैडर के स्तर पर पुनर्गठन की जरूरत है। दूसरी ओर, भाजपा नेतृत्व का तर्क है कि 2029 के चुनाव की दृष्टि से ऐसा अध्यक्ष चाहिए, जो केंद्र सरकार की नीतियों को जनसमर्थन में बदल सके, न कि अलग शक्ति केंद्र बन जाए।
दरअसल, यह टकराव केवल व्यक्ति-चयन का नहीं, बल्कि दृष्टिकोण का है। संघ का झुकाव संगठन-प्रधान राजनीति की ओर है, जबकि भाजपा की प्राथमिकता प्रदर्शन-प्रधान नेतृत्व है। यही कारण है कि दोनों के बीच अब तक कोई आम सहमति नहीं बन सकी। पार्टी सूत्र बताते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं कि अगला अध्यक्ष अपेक्षाकृत युवा हो, मीडिया से संवादशील हो और डिजिटल अभियान को आगे बढ़ा सके। जबकि संघ चाहता है कि वह व्यक्ति विचारधारा से गहराई से जुड़ा हो और कार्यकर्ता संस्कृति को फिर से जीवित करे। इन विरोधाभासों के बीच भाजपा के भीतर एक असामान्य ठहराव दिख रहा है। केंद्रीय नेतृत्व बार-बार यह संदेश दे रहा है कि अध्यक्ष का चयन भाजपा का आंतरिक विषय है पर यह स्पष्ट है कि अंतिम निर्णय नागपुर के परामर्श के बिना संभव नहीं। इस पूरे घटनाक्रम से यह भी स्पष्ट होता है कि भाजपा और आरएसएस के रिश्ते अब पहले जैसे सरल नहीं रहे। भाजपा अब एक पूर्ण राजनीतिक शक्ति है, जो संघ की छाया से धीरे-धीरे बाहर निकलना चाहती है; वहीं संघ यह नहीं चाहता कि उसकी वैचारिक आत्मा केवल एक चुनावी मशीन में बदल जाए। इसलिए यह संघर्ष किसी नाम के चयन तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह तय करेगा कि आने वाले वर्षों में भाजपा का स्वरूप कैसा होगा। क्या यह एक नेतृत्व-आधारित संगठन बना रहेगा या फिर संघ की तरह संगठन-आधारित आंदोलन बनेगी। निष्कर्षतः, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की खोज केवल एक व्यक्ति की तलाश नहीं है, बल्कि पार्टी और संघ के बीच उस नए संतुलन की परीक्षा है, जो भविष्य के भारतीय राजनीति की दिशा तय करेगा।

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