यह सवाल अब हरियाणा की धरती पर गूंज रहा है कि क्या दिवंगत आईपीएस अधिकारी वाई. पूरण कुमार को न्याय मिलेगा या उनका मामला भी जस्टिस लोया की तरह फाइलों में दफन हो जाएगा। पूरण कुमार की आईएएस पत्नी अब भी न्याय की लड़ाई में डटी हैं लेकिन सत्ता और अफसरशाही के गठजोड़ ने इस संघर्ष को जटिल बना दिया है। पूरण कुमार की मृत्यु ने हरियाणा प्रशासन की आत्मा को झकझोर दिया। यह सिर्फ एक अफसर की आत्महत्या नहीं, बल्कि उस सड़ांध का आईना है, जो व्यवस्था के भीतर वर्षों से पलती रही। भेदभाव, जातिवाद और सत्ता का दबाव। उन्होंने लिखा था, “मैं हार नहीं रहा, बस सच दिखाने का तरीका चुन लिया है।” यही वाक्य आज हरियाणा की व्यवस्था की परीक्षा बन गया है। यदि इस मामले की जांच निष्पक्ष हुई तो यह हरियाणा पुलिस के इतिहास का टर्निंग पॉइंट साबित होगा। पहली बार यह स्वीकार करना पड़ेगा कि ईमानदारी कमजोरी नहीं, व्यवस्था की रीढ़ है लेकिन अगर जांच सत्ता के दबाव में दबी रही, तो यह सिर्फ एक अफसर की नहीं, पूरे सिस्टम की हार होगी। हरियाणा सरकार को दिखाना होगा कि दबाव के आगे न्याय की गर्दन नही दबोची जाएगी। पूरण कुमार का अंतिम पत्र जातिगत भेदभाव की उस परत को उजागर कर गया, जिस पर आमतौर पर चुप्पी साध ली जाती है। यदि जांच में यह साबित होता है कि उन्हें जाति के कारण अपमानित किया गया तो सरकार को अपने सेवा आचरण नियमों में जातीय भेदभाव को दंडनीय अपराध घोषित करना ही पड़ेगा। यही सुधार भारतीय पुलिस सेवा के चरित्र में नैतिक क्रांति का सूत्रपात कर सकता है। इस प्रकरण ने “संस्थागत अन्याय” पर व्यापक बहस छेड़ दी है। यदि सच सामने आया, तो हरियाणा में स्वतंत्र पुलिस शिकायत आयोग की मांग जोर पकड़ सकती है, जो राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त हो। वहीं, पूरण कुमार की पत्नी यदि सुप्रीम कोर्ट में न्यायिक निगरानी जांच की याचिका दाखिल करती हैं, तो यह देश की नौकरशाही में ऐतिहासिक मोड़ ला सकती है।
इस कहानी का दूसरा पक्ष भी है। पूरण कुमार की मौत के बाद राजस्थान के विवादास्पद आईपीएस पंकज चौधरी भी इसी जातीय ढाल के सहारे सुर्खियों में आने की कोशिश कर रहे हैं। यह वही अधिकारी हैं, जिनकी पत्नी ने सोशल मीडिया पर नेताओं और अफसरों के खिलाफ लम्बे समय तक अपशब्दों की झड़ी लगा दी थी। अब वे चुप क्यों है, रहस्य की बात है। पंकज चौधरी का इतिहास बताता है कि उन्होंने पुलिस सेवा की गरिमा से अधिक राजनीति से प्रेम किया। चुनाव लड़े, हार गए। अब खुद को “पीड़ित” साबित करने में जुटे हैं। वे जहां भी पदस्थापित रहे, चर्चाओं ने इनका पीछा नही छोड़ा। पुलिस के अधिकारी बताते है कि एसीआर भरते वक्त कई पहलुओं को दृष्टिगत रखना पड़ता है। मातहत का आचरण, अनुशासन, कर्तव्यनिष्ठता आदि। अफसरों ने पंकज की एसीआर उनकी जाति देखकर नही, उनके अशिष्ट आचरण को देखकर भरी थी। यदि पिछड़ी जाति का कोई अफसर उच्च जाति के मातहत की खराब एसीआर भरता है तो इसका अर्थ यह तो नही कि एसीआर दुर्भावना से भरी होगी। जिले के एक दलित अफसर ने आधे से ज्यादा मातहतों की एसीआर एक श्रेणी नीचे कर दी। इस बारे में पंकज चौधरी क्या कहेंगे ? एसीआर अफसर अपने विवेक के आधार पर भरता है। यदि किसी को उज्र है तो वह अपील भी कर सकता है। हर व्यक्ति को न्याय की मांग का अधिकार है पर मर्यादा का पालन भी उतना ही आवश्यक है। पंकज चौधरी का आचरण बताता है कि वे जाति को कवच बनाकर अपने असफलताओं को ढकने की कोशिश कर रहे हैं। सरकार को चाहिए कि वह इस पूरे प्रकरण में न्याय और अनुशासन दोनों का संतुलन बनाए। न किसी को प्रताड़ित किया जाए और न ही कोई अपनी अशिष्टता को जाति की ढाल बनाकर बच निकले। कैट फैसले के खिलाफ अपील भी की जानी चाहिए ताकि वास्तविक न्याय मिल सके।
पूरण कुमार का संघर्ष अब एक आंदोलन बन चुका है। वह आंदोलन जो पूछ रहा है कि क्या इस देश में ईमानदार अधिकारी सुरक्षित हैं ? अगर जांच निष्पक्ष हुई तो हरियाणा पुलिस को एक नई पहचान मिलेगी लेकिन अगर यह मामला भी फाइलों में सिमट गया, तो पूरण कुमार के शब्द ही इस तंत्र की आत्मा पर लिखा फैसला होंगे —“मेरी मौत, मेरे जीवन से बड़ी होगी।”