साजनियां ! नेह न तोरी रे, जे हम तोरैं महा अपराधी, तो तूँ जोरी रे॥ प्रेम बिना रस फीका लागै, मीठा मधुर न होई। सकल शिरोमणि सब तैं नीका, कड़वा लागै सोई॥१॥ जब लग प्रीति प्रेम रस नाँहीं हीं, तृषा बिना जल ऐसा। सब तैं सुन्दर एक अमीरस, होइ हलाहल जैसा॥२॥ सुन्दरि सांई खरा पियारा, नेह नवा नित होवै। दादू मेरा तब मन मानै, सेज सदा सुख सोवै॥३॥ हे प्रभो ! आप सज्जन और मेरे प्यारे हैं । आपके साथ जो मेरा प्रेम हैं, उसको कभी तोड़ना नहीं। यदि कभी मैं भी मेरी तरफ से उस प्रेम को तोडूं तो मैं आपका महा अपराधी कहलाऊंगा लेकिन सज्जनता के नाते आप उस स्नेह को नहीं तोड़ना, क्योंकि प्रेम के बिना सर्वशिरोमणि परमात्मा भी अच्छा नहीं लगता, जैसे बिना प्रेम के दिया हुआ मधुर शीतल जल भी स्वादु नहीं लगता। अतः प्रेम में ही रस है। प्रेम से ही वस्तुयें अच्छी लगती हैं। प्रेम के बिना तो महारस भी विष की तरह लगता है। अद्वैत ब्रह्म भी प्रेम से ही अच्छा लगता हैं। मेरे को तो परमात्मा अच्छे लगते हैं और बहुत ही प्रिय हैं। यह मेरा प्रेम परमात्मा के साथ जो हैं, वहा नित्य नूतन होता रहता हैं किन्तु हे सुन्दरि ! मैं तो उस परमात्मा के प्रेम को सच्चा जब मानूंगा कि वह मेरी हृदय शय्या पर स्वयं आकर सदा के लिये उस पर अपना अधिकार करके सोयेगा। इस भजन में श्री दादूजी ने प्रेमाभक्ति का निरूपण किया है।
प्रबोध सुधाकर में लिखा है कि –
भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-कमलों की भक्ति किये बिना अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता। जैसे गंदा कपड़ा क्षार से शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार चित्त के मल को धोने के लिये भक्ति ही साधन हैं।शिवानन्द लहरी में श्रीशंकराचार्य जी लिखा रहे हैं –जैसे अंकोल वृक्ष के बीज मूलवृक्ष से तथा सुई चुम्बक से, पतिव्रता साध्वी नारी पति से, लता वृक्ष से, नदी सागर से जा मिलती हैं। उसी प्रकार चित्तवृत्तियां भगवान् के चरण-कमलों को प्राप्त कर सदा के लिये स्थिर हो जाती हैं, तब उसे प्रेमाभक्ति कहते हैं ।