निदंक बाबा बीर हमारा, बिनही कौड़े बहै बिचारा॥ कर्म कोटि के कश्मल काटे, काज सँवारै बिन ही साटे॥१॥ आपण डूबे और को तारे, ऐसा प्रीतम पार उतारे॥२॥ जुग जुग जीवो निन्दक मोरा, राम देव तुम करो निहोरा॥३॥ निदंक बपुरा पर उपकारी, दादू निंदा करै हमारी॥४॥ हे तात ! निन्दक पुरुष तो मेरे लिये भाई की तरह प्रेमपात्र है क्योंकि कार्य तो करता है लेकिन वेतन नहीं चाहता। हमारे अक्षय करोड़ों पापों को केवल निन्दा करके ही नष्ट कर देता है और पारिश्रमिक कुछ भी नहीं लेता। स्वयं पाप के समुद्र में डूबता है और दूसरों को निष्पाप बनाकर तारता है। संसार से तारने के कारण मेरा तो प्रिय बन गया। अहो ! इस निंदक की कितनी महिमा बतलाऊं। हे राम ! मेरा निन्दक युगों युगों जीता रहे क्योंकि वह हमारा उपकारी है। मेरी निन्दा करके मेरे पापों को धोता है। यह भजन सांभर नगर में किसी निंदक व्यक्ति को उपदेश रूप में सुनाया था, जिससे उसने लज्जित होकर निन्दा करना छोड़ दिया। यदि कोई मेरी निन्दा से प्रसन्न होता है तो उसका मेरे ऊपर बिना प्रयास के ही अनुग्रह है क्योंकि कल्याण चाहने वाले बड़े दुःख से उपार्जित किये हुए धन को भी त्याग देते हैं। अतः मेरी निन्दा करने से तो मैं बिना ही प्रयास के कल्याण को प्राप्त हो जाऊंगा। यह संसार दीनदुःखी है यदि कोई मेरी निन्दा से सुखी होता है तो वह मेरे सामने, पीठ पीछे वह खूब निन्दा करे ! क्योंकि दुःख बहुल संसार में किसी को सुखी करना बड़ा कठिन है। जिस योगी के लिये मान अपमान दोनों ही भूषण हैं। उस योगी के चित्त को वाचाल पुरुष निन्दा या अपमान से क्षुभित कैसे कर सकता है। यदि निंदक आत्मा की निन्दा करता है तो आत्मा सबकी एक होने से वह अपनी ही निन्दा कर रहा है। शरीर की निन्दा करता है तो वह मेरा सहायक है क्योंकि शरीर तो निन्दनीय ही है। मल मूत्र को त्याग देने के बाद यदि कोई मलमूत्र की निन्दा करे तो निन्दक को क्या लाभ होगा। इसी प्रकार स्थूल सूक्ष्म दोनों शरीरों को विवेक के द्वारा मलिन समझकर त्याग देने पर यदि कोई उन दोनों शरीरों की निन्दा करे तो ज्ञानी को कोई हानि लाभ दुःख नहीं होता क्योंकि शोक, हर्ष, भय, काम, क्रोध, लोभ, मोह यह सब अहंकार के धर्म हैं, आत्मा में तो है नहीं और आत्मा में जन्म मरण भी नहीं होते।
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