पवना पानी सब पिया, धरती अरु आकाश। चंद सूर पावक मिले,पंचौ एकै ग्रास।। चौदह तीनों लोक सब,ठूगे सासैं सास। दादू साधू सब जरै, सतगुरु के विश्वास।। संतशिरोमणि महर्षि श्रीदादू दयाल जी महाराज ने विषयों में अनासक्त रहना वायु से सीखा, शीतलता रूप जल का गुण, क्षमारूप पृथ्वी का गुण, असङ्गतारूप आकाश का गुण, सौम्यता रूप चंद्रमा का गुण, प्रभु भक्ति में शूरता रूप सूर्य का गुण, तेजस्विता रूप अग्नि का गुण,एक ही साथ एक ही श्वास में सब धारण कर लिए और इन्हें पचा गए। इसी प्रकार 14 भुवन और त्रिलोकी, इन सबको भी एक ग्रास में ही धारण कर लिया फिर किंचित अभिमान भी नहीं किया। इसी तरह सभी साधु महात्माओं को भी चाहिए कि शीत-उष्ण, सुख-दुख, राग-द्वेष इन सब की तितिक्षा करें। उपनिषद में किसी से द्रोह एवं अभिमान न करें। लज्जा, शम दम -इन गुणों को धारण करें। बुद्धिमान,धैर्यशाली, प्राणियों पर दया करने वाले, कामद्वेष रहित महात्मा त्रिलोकी के साक्षी माने जाते हैं। संतों के तीन ही उत्तम लक्षण माने जाते हैं कि किसी से द्रोह न करना, सदा सत्य बोलना और सब पर दया करना क्योंकि महात्मा अत्यंत करूणाशील होते हैं। महाभारत में जिनका धर्म सुनिश्चित है, जो संतोषी है तथा शिष्टाचार का पालन करते हैं ऐसे महात्मा उस उत्तम धर्म पद पर जाते हैं। अर्थसंकट में प्रदत्त होकर कभी धर्म का परित्याग नहीं करना चाहिए। निषिद्ध कर्मों का आचरण सर्वथा निन्दनीय समझना चाहिए। कल्याण मार्ग का विचार करते हुए उसी मार्ग पर चलना चाहिए, जिससे साधुता का ही पालन हो क्योंकि पापी तो पहले ही अपने पापभार से दबा हुआ है। दूसरों के प्रति गलत आचरण करना तो दुर्जन जनों का कार्य हैं।
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