तुम बिन ऐसैं कौन करै ! गरीब निवाज गुसांई मेरो, माथै मुकुट धरै॥ नीच ऊँच ले करै गुसांई, टार्यो हूँ न टरै। हस्त कमल की छाया राखै, काहू तैं न डरै॥ जाकी छोत जगत को लागै, तापर तूँ हीं ढ़रै। अमर आप ले करे गुसांई, मार्यो हूँ न मरै॥
नामदेव कबीर जुलाहो, जन रैदास तिरै। दादू बेगि बार नहीं लागै, हरि सौं सबै सरै॥ संतप्रवर दादू दयाल जी महाराज परमात्मा की महिमा बता रहे है मेरे स्वामी भगवान् दयालु ! दीनों के उद्धार करने वाले पतित पावन हैं और मेरे निःसीम प्रेम के पात्र हैं, मैं उनको नहीं छोड़ सकती हूँ। मैं जाति से स्त्री वेश्या पापपरायणा तथा ब्राह्मणों से अस्पृश्य निन्दनीय हूँ, फिर भी आपने दया करके मेरे हाथों से अपने शिर पर मुकुट पहना और जरा सी भी ग्लानि नहीं की, किन्तु मुझे भक्तों के मध्य में सर्वमान्य पूजनीय बना दिया। आपकी दयालुता के विषय में और क्या कहूं ? आपका कृपा-पात्र भक्त यम आदि से भी नहीं डरता। आपकी कृपा से वह अजर अमर (जीवन्मुक्त) हो जाता है। दूसरों के मारे जाने पर भी वह नहीं मरता क्योंकि आप उसके सदा रक्षक रहते हैं। आपका भक्त आपकी भक्ति को जन्मातरों में भी नहीं त्यागता किन्तु सदा के लिये आपका दास बन जाता है। जैसे नामदेव, कबीर, रैदास आदि भक्त शीघ्र ही संसार सागर को पार करके मुक्त हो गये। हे हरे ! आपके लिये क्या दुष्कर है, आप तो पापियों को भी तार देते हैं। जो आपकी शरण में आ जाते हैं, उनके सारे कार्य आपकी दया से स्वयं ही सिद्ध हो जाते हैं।
वैषणवमताब्जभाष्कर आपकी शरण में आने का सभी को अधिकार है, चाहे वह शक्त हो या अशक्त, किन्तु आपके प्रेम में रंगा हुआ होना चाहिये। कृपा करते समय भगवान् यह नहीं देखते कि इसका कुल कैसा है, इसमें क्या बल है, शुद्ध है या नहीं, कृपा का भी समय है या नहीं ?
आलविन्दारस्तोत्र में – हे दयासिन्धो, दीन-बन्धो ! मैं दुराचारी, नरपशु आदि अन्त रहित, अपरिहार्य महान् अशुभों का भंडार हूँ, तो भी हे अपार-वात्सल्य-सागर ! आपके गुण-गणों का स्मरण करके निर्भय हो जाऊं, ऐसी इच्छा करता हूँ।