सद्गति साधवा रे सन्मुख सिरजनहार। भौ जल आप तिरै ते तारें, प्राण उधारनहार॥ पूरण ब्रह्म राम रंगि राते, निर्मल नांउं अधार। सुख संतोष सदा सति संजम, मति गति वार न पार।। जुग जुग राते जुग जुग माते, जुग जुग संगति सार। जुग जुग मेला, जुग जुग जीवन, जुग जुग ज्ञान विचार॥ सकल सिरोमणि सब सुखदाता, दुर्लभ इहिं संसार।।
दादू हंस रहैं सुख सागर, आये पर उपगार॥ अर्थातः सन्तों से ही सद्गति प्राप्त होती है ; क्योंकि उनका मन सदा ब्रह्मनिष्ठ रहता है और वे प्रभु को भजते हुए प्रभु को ही सर्वत्र देखते हैं। संसार-समुद्र के विषय-जल को स्वयं पार करके दूसरों को भी पार कर देते हैं, क्योंकि उनका संसार में परोपकार के लिये ही आगमन होता है। पूर्णब्रह्म में अनुरक्त होकर उनके नाम का ही आश्रय लेते हैं। वे सदा संयमी, संतोषी और सुखी रहते हैं। उनकी बुद्धि का कोई अन्त नहीं है क्योंकि वह अपार और अनन्त हैं। उनकी संगति करने से परब्रह्म परमात्मा का ज्ञान भी साधक को प्राप्त हो जाता है। वे सदा प्रभु-प्रेम में मस्त रहते हुए सबके जीवन-स्वरूप बन जाते हैं। सब को सुख देने वाले, सबके शिरोमणि, सन्त इस संसार में दुर्लभ ही मिलते हैं क्योंकि वे तो सुख सागर जो ब्रह्म है, उसमें हंसों की तरह निवास करते रहते हैं। कभी-कभी संसार में परोपकार के लिये अवतरित होते हैं। श्रीभागवत में लिखा है हे प्यारे उद्धव ! मेरा भक्त कृपालु होता है। किसी भी प्राणी से बैर-भाव नहीं रखता। घोर से घोर दुःख में भी प्रसन्नता से रहता है। सत्य ही उसके जीवन का सार है। उनके मन में पाप-वासना नहीं आती। वह समदर्शी सबका भला करने वाला होता है। उसकी बुद्धि वासनाओं से दूषित नहीं होती। वह संयमी, मधुर स्वभाव वाला और पवित्र होता है। वह संग्रह से दूर रहता है। किसी वस्तु की प्राप्ति के लिये चेष्टा नहीं करता। परिमित भोजन करता है और शान्त रहता है। उसकी बुद्धि शान्त स्थिर रहती है तथा मेरा ही भरोसा करता है और सदा आत्मचिन्तन में लगा रहता है।
महाभारत में मूर्खो का संग मोहजाल को पैदा करता है और साधु का संग सदा धर्म में प्रवृत्ति कराने वाला होता है। जिनकी विद्या, कुल और कर्म ये तीनों शुद्ध हों, ऐसे साधु पुरुषों की सेवा में लगा रहना उनके साथ उठना-बैठना शास्त्रों के स्वाध्याय से भी श्रेष्ठ है।