तन जाइ रे, जन्म सुफल कर लेहु राम रमि, सुमिरि सुमिरि गुण गाइ रे॥ नर नारायण सकल शिरोमणि, जन्म अमोलिक आहि रे। सो तन जाइ जगत नहिं जानैं, सकहि तो ठाहर लाइ रे ॥ जुरा काल दिन आइ गरासै, तासौं कछु न बसाइ रे। छिन छिन छीजत जाइ मुग्ध नर, अन्तिकाल दिन आइ रे॥ प्रेम भगति साधु की संगति, नाम निरन्तर गाइ रे। जे सिरि भाग तौ सौंज सुफल कर, दादू विलम्ब न लाइ रे॥ इस मानव शरीर के श्वास प्रश्वासों को विषयों में आसक्त मन के द्वारा व्यर्थ में ही गंवा दिये। बार बार सावधान करने पर भी तू नहीं जागा। अब भगवान् के गुणानुवाद करके उसी में रमता हुआ अपने जन्म को सफल बनाले। यह नरशरीर अमूल्य है। नारायण की प्राप्ति का साधन है। ऐसी अमूल्य निधि को तू प्रमाद में खो रहा है। तुम यथाशक्ति भजन करके अपने स्वरूप ब्रह्म में लीन होने के लिये इस शरीर का उपयोग करो। तेरी वृद्धावस्था भी आ गई, काल भी समीप ही है। इन दोनों का कोई निवारण भी नहीं कर सकता क्योंकि ये दोनों शरीर के अवश्य होने वाले धर्म हैं। सत्सङ्गति द्वारा भगवान् का नाम स्मरण से तू अपने जन्म को सफल बना, तब हो तू भाग्यशाली माना जायगा। अन्यथा तो तेरा जन्म निष्फल ही है। अब इस कार्य में विलम्ब मत कर। श्रीभागवत में- हे पुत्रो ! इस मृत्यु-लोक में यह मनुष्य शरीर दुःखमय विषय-भोग के लिये ही नहीं है। यह भोग तो विष्ठा-भोगी सूकर, कूकर आदि को भी मिलते ही है। इस शरीर से तो दिव्य तप ही करना चाहिये। जिससे तुम्हारा अन्तःकरण शुद्ध हो। इसीसे ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है। जो परम दुर्लभ मानव शरीर पाकर भी काम-परायण होकर दूसरों से द्वेष करता है और धर्म की अवहेलना करता है, वह महान् लाभ से वञ्चित रह जाता है। जो लोग मृत्यु के निकट पहुँच रहे हैं, उन्हें सब प्रकार से भगवान् का ही ध्यान करना चाहिये। हे परीक्षित् ! सबके परम आश्रय सर्वात्मा भगवान् अपने ध्यान करने वाले को अपने स्वरूप में लीन कर लेते हैं।
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