धार्मिक उपदेश: धर्म कर्म

AYUSH ANTIMA
By -
0


कब आवैगा कब आवैगा, पिव परगट आप दिखावैगा, मिठड़ा मुझकौं भावैगा॥ टेक॥
कंठडै लागि नैनौं मैं बाहि धरूं रे,
पीव तुझ बिन झूरि मरूं रे॥ १॥
पांवौं मस्तक मेरा रे तन मन पीव जी तेरा रे, हौं राखू नैनहुँ नेरा रे।।२॥ हियड़े हेत लगाऊं रे, अबकै जे पीव पाऊं रे, तौ बेर बेर बलि जाऊं रे॥ ३॥ सेजड़ीये पीव आवै रे, तब आनन्द अंगि न मावै रे,
दादू दरस दिखावै रे॥४॥ हे मेरे प्यारे प्रभो! कहो तो सही आप कब आयेंगें और जब आकर दर्शन देंगे, तो उस समय मधुर स्वभाव वाले भगवान् मुझे बहुत ही प्रिय लगेंगे। तब मैं दौड़कर उनको अपने कंठ से लगा लूंगी। उनको अंजन की तरह मेरे नेत्रों में ही धारण कर लूंगी। हाय ! मैं प्रभुके बिना मृत-तुल्य हो रही हूँ। हे प्रभो ! मैं आपके चरणों में नमस्कार कर रही हूँ। मेरा तन मन यह आपका ही है। आप तो मेरे नेत्रों में ही बस जावो। आप मेरे हृदय को बहुत प्यारे लगते
हो। यदि मुझे इसी शरीर में ही आपके दर्शन हो जायेंगे तो मैं अपना जीवन सफल मानूंगी। मैं बार-बार आपको प्रणाम करती हूँ। जब प्रभु मेरी हृदय-शय्या पर आकर दर्शन देंगे तब इतना आनन्द आयेगा कि वह हृदय में नहीं समायेगा। उस समय मुझे ब्रह्मानन्द भी तृण की तरह तुच्छ मालूम होगा क्योंकि विरहीजन विरह को ही वास्तविक रस मानते हैं। भक्तिरसायन में लिखा है कि-पृथ्वी को सरसा कहते हैं, अर्थात् वह रस (जल) वाली है। नदी भी रस (जल) वाली होती है लेकिन वे जडमयी हैं। मेरी समझ में तो गोपियाँ ही साक्षात् मूर्तिमान् चैतन्य रस है।

Post a Comment

0Comments

Post a Comment (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!