तहं आपै आप निरंजना, तहं निसवासर नहिं संजमा॥ टेक॥
तहं धरती अम्बर नाही, तहं धूप न दीसै छांही। तहं पवन न चालै पानी, तहं आपै एक बिनांन॥ १॥
तहं चन्दन ऊगै सूरा, मुख काल न बाजै तूरा। तहं सुख दुःख का गम नाही, ओ तौ अगम अगोचर मांही॥२॥ तहं काल काया नहिं लागै, तहं को सोवै को जागे।
तहं पाप पुण्य नहिं कोई, तहं अलख निरंजन सोई॥ ३॥
तहं सहजि रहै सो स्वामी, सब घट अनतरजामी। सकल निरन्तर बासा, रटि दादू संगम पासा॥ ४॥
हिन्दी: निर्विकल्प समाधि देश में मायारहित विशुद्ध ब्रह्म ही रहता है। वहां पर संयम आदि साधनों की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि साधन संपन्न होकर ही ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है। उस समाधि में दिन और रात नहीं होते।
श्वेताश्वतर में लिखा है कि-
जब अज्ञानमय अन्धकार का सर्वथा अभाव हो जाता है, उस समय में अनुभव में आने वाला तत्व, न दिन है न रात है और न सत् है और न असत् एक मात्र केवल कल्याणमय शिव ही है। योगी पृथिव्यादि पञ्चभूतों को जीत लेता है, अत: तज्जन्य कोई भी विकार योगी में नहीं आ सकते हैं। 'पातञ्जलयोग प्रदीप' में लिखा है कि-जब पृथिवी जल तेज वायु आकाश प्रकट होते हैं। अर्थात् पाचों तत्वों का जय होता है। तब फिर योगी के लिये न रोग है न जरा, न दुःख है क्योंकि उसने वह शरीर पा लिया है कि जो योगी की अग्नि से बना है। धूप छाया शब्द से शीतोष्ण आदि द्वन्द समझने चाहिये। अत: योगी को शीतोष्ण आदि द्वन्द्व भी नहीं सताते। हठयोगदीपिका में-
समाधि से युक्त योगी शीत उष्ण आदि पदार्थों की ताडना आदि दुःखों को चन्दन आदि के सुरभि लेप के सुख को मान अपमान को नहीं जानता है। समाधि में पवन भी नहीं चलता क्योंकि उसका निरोध हो चुका है।
योगी स्वस्थ अवस्था में अर्थात् इन्द्रियाँ और अन्त:करण की प्रसन्नता में स्थित होकर जाग्रत अवस्था में भी देह इन्द्रियों के व्यापार से भी शून्य सुषुप्त पुरुष के समान, बाहर की वायु का देह में ग्रहण रूप निश्वास और देह में स्थित रूप वायु का बाहर निकालना रूप उच्छासा इन दोनों से रहित निश्चल रहता है, ऐसा योगी निश्चित ही मुक्त है। माया रूपी मेघ भी नहीं बरसता। अर्थात् माया के प्रभाव से योगी मुक्त है। चन्द्रमा सूर्य से भी उसका प्रकाश नहीं कर सकते। क्योंकि वह ब्रह्मरूप हो गया।
श्रुति में लिखा है कि उसकी ही कान्ति से सारा विश्व प्रकाशित हो रहा है। गीता में भी कहा है कि- उस ब्रह्म को सूर्य चन्द्रमा अग्नि प्रकाशित नहीं कर सकते। काल की भी वहां कोई बाधा
नहीं। हठयोग में लिखा है कि- समाधिस्थ मनुष्य को मृत्यु भी नहीं खा सकता। शुभ-अशुभ कर्मों का फल जो जन्म- मरण क्लेश है, वह भी योगी को नहीं होता। सुख दुःख का भी कोई प्रभाव नहीं होता क्योंकि वह इन्द्रियातीत ब्रह्म रूप है। उसके शरीर पर कोई काल का भी प्रभाव नहीं होता क्योंकि जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति मूर्छा मरण रूप जो व्युत्थान दशा है, उससे वह रहित है। हठयोग में-जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति मूर्छा मरण रूप जो पांच व्युत्थान रूप दशा है, उससे वह रहित है। सब चिन्ताओं से मुक्त शव की तरह वृत्तियों के निरोध रूप में स्थित है। न उसको पाप पुण्य लगते क्योंकि श्रुति में ज्ञानी को पाप पुण्य नहीं लगते। आगे होने वाला पाप पुण्य का आश्लेष
भी योगी को नहीं होता। श्रुति में- जैसे कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता वैसे ही ज्ञानी के भी पाप पुण्य का लेश भी नहीं लगता। पाप शब्द से पुण्य का भी ग्रहण समझना क्योंकि श्रुति में ऐसा ही लिखा है जो यह आत्मा है, वह विशेष रूप से धारण करने वाला सेतु है। इस सेतु का दिन रात अतिक्रमण नहीं कर सकते। जरा मृत्यु शोक सुकृत दुष्कृत कुछ भी उसको प्राप्त नहीं होते अत: समाधि में ब्रह्म ही शेष रहता है और मैं दादू उसी का ध्यान करता हूं।