बाबा को ऐसा जन जोगी, अंजन छाडै रहै निरंजन, सहज सदा रस भोगी॥ टेक॥ छाया माया रहै विवर्जित, पिंड ब्रह्माण्ड नियारे।
चन्द सूर ते अगम अगोचर, सो गहि तत्त विचारे॥१॥ पाप पुण्य लिपै नहिं कब हूं, द्वै पख रहिता सोइ। धरनि आकाश ताहि तैं ऊपरि, तहां जाइ रत होइ॥ २॥
जीवन मरण न बांछै कबहूं, आवागवन न फेरा। पानी पवन परस नहिं लागै, तिहिं संग करै बसेरा॥३॥ गुण आकार जहां गम नांहीं, आपै आप अकेला। दादू जाइ तहां जन जोगी, परम पुरुष सौं मेला॥ ४॥ हे तात ! ऐसा कोई योगी है कि जो मायिक प्रपञ्चों को त्याग कर नित्य निर्द्वन्द अवस्था में परब्रह्म परमात्मा के चिन्तन रस के उपभोग में ही लगा रहे। मायिक जाल से बहुत दूर रहता हो। न कभी शरीर का अध्यास ही करता और न संसार के पदार्थों के भोग में जरा सी भी आसक्ति करता। इन्द्रियों के अविषय ब्रह्म तत्व को अपना निजरूप मान कर सतत उसी का स्मरण करता हो। अपने को अकर्ता अभोक्ता मानकर न पुण्य करे न पाप में लिप्त हो। मूलाधारादि पांच चक्र हैं, जो पृथिव्यादि रूप है उनसे भी उपर आज्ञा चक्र में मन की वृत्ति लगाकर ब्रह्म के स्वरूप में सदा अनुरक्त रहे। न अपनी दीर्घायुष्य की कामना करे न शीघ्र मरने की इच्छा करे। जिसको जल वायु छू भी न सकें। सदा ब्रह्म में ही निवास करे न किसी गुणों से प्रेम, न साकार की उपासना ही करता है। ऐसा योगी होना बड़ा ही दुर्लभ है, जो परमात्मा को प्राप्त करने के लिये यत्न करता हो।