जिस रस कौं मुनियर मरैं, सुरनर करैं कलाप। सो रस सहजै पाइये, साधु संगति आप।।
संतशिरोमणि महर्षि श्रीदादू दयाल जी महाराज कहते है कि जिस ब्रह्मरस की प्राप्ति के लिये श्रेष्ठमुनि लोग, देवता, मानव, नाना साधन करते हुए भी उस रस को प्राप्त नही कर सके, उसी ब्रह्म रस को महात्माओं के सत्संग में अनायास ही प्राणी को प्राप्त हो सकता है। पद्मपुराण में चिन्तामणि के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है। जम्बू नदी के जल के संग से मिट्टी सोना बन जाती है। मानसरोवर को प्राप्त करके बगुला भी हंस बन जाता है और मनुष्य यदि एक बार भी अमृत का पान कर लेता तो वह देवत्व को प्राप्त हो जाता है। वैसे ही महात्माओं के दर्शन स्पर्शन से तथा सत्संगति से पापी मानव भी तत्काल पवित्र हो जाता है।
महाभारत में मनुष्य जैसे लोगों के साथ मे वास करता है। जैसे लोगों की उपासना करता है, जैसे होने की इच्छा करता हैं वैसा ही हुआ करता है, जो जिस प्रकार से जिस पुरुष की सेवा करता है, वह उसी के वशीभूत हो जाता है। जैसे वस्त्र को जिस रंग में रंगा जाय तो वैसा ही हो जाता है। जैसे कोई साधु तपस्वी की सेवा करता है तो उस तपस्वी के अधीन हो जाता है, तस्कर की सेवा से तस्कर बन जाता है। अतः देवता भी साधुओ की सत्संगति ही अच्छा बतलाते है, अतः साधक को सत्संग करना चाहिए।