मेरे तुम ही राखणहार, दूजा को नहीं। ये चंचल चहुँ दिशि जाय, काल तहीं तहीं॥टेक॥ मैं केते किये उपाय, निश्चल ना रहै। जहँ बरजूं तहँ जाय, मद मातो बहै॥१॥ जहँ जाणा तहँ जाय, तुम्ह तैं ना डरै। तासौं कहा बसाइ, भावै त्यों करै॥२॥ सकल पुकारैं साध, मैं केता कह्या। गुरु अंकुश मानै नाहिं, निर्भय ह्वै रह्या॥३॥ तुम बिन और न कोइ, इस मन को गहै। तूँ राखै राखणहार, दादू तो रहै॥४॥ हे परमात्मन् ! मेरे मन की रक्षा आप ही कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं। यह मेरा मन बड़ा ही चंचल है और विषयों में ही दौड़ता रहता है परन्तु मुझे तो यह विषय विष में तुल्य प्रतीत होते हैं। इस मन को रोकने के लिये नाना उपाय किये परन्तु यह नहीं रुका, यह मन विलक्षण स्वभाव वाला है। जहां जहां जाता है, वहां वहां से इसको मना करने पर भी नहीं मानता। इसको निषिद्धवस्तु ही प्यारी है, अतः उनके लिये पागल की तरह दौड़ता है। ईश्वर का भी भय नहीं मानता। अपने को प्रिय लगने वाले कर्म ही करता है। इस मन के आगे बुद्धिमानों की भी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। सत्पुरुषों का दिया हुआ ज्ञान भी निष्फल चला जाता है। यह गुरु के वचन रूपी अंकुश को भी तोड़ कर निर्भय हो रहा है। इस विषय रूपी जंगल में घूमते हुए इस मन रूपी सिंह को कोई भी नहीं मार सकता। मुझे तो पूर्ण विश्वास है कि इस मन को आप ही जीत सकते हैं। अतः आप ही मेरे मन को पकड़कर अपने चरणों में रखें, तब ही यह मन अपनी चंचलता को त्याग कर स्थित बैठ सकता है। गीता में –अर्जुन भगवान् को कहता है कि – हे श्रीकृष्ण ! यह मन बड़ा ही चंचल प्रमथनशील और दृढ़ बलवान् है। इसको वश में करना मैं वायु को रोकने की तरह दुष्कर मानता हूं। भगवान् बोले –निःसंदेह मन चंचल है, इसका रोकना कठिन है, किन्तु अभ्यास और वैराग्य से यह रोका जा सकता है। योगसूत्र में भी –मन अभ्यास और वैराग्य से ही रोका जा सकता है, ऐसा कहा है। अभ्यास किसको कहते हैं ? – चित्त में निरन्तर ब्रह्माकार वृत्ति को बनाये रखने का नाम अभ्यास है। विषयों में जो दृष्ट-अदृष्ट तथा इष्ट हैं, उनमें घृणा पैदा हो जाय तो फिर उससे वैराग्य पैदा हो जाता है।
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