सनातन धर्म में हमारे पारिवारिक रिश्ते इतने प्रगाढ़ रहे हैं कि अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने महलों का त्याग करते हुए चौदह वर्षों के वनवासी हो गये थे। आधुनिक परिवेश में समाज में संस्कारों व सनातन संस्कृति में पतन देखने को मिल रहा है। अर्थ की इस अंधी दौड़ में आदमी इतना अंधा हो गया है कि उसे रिश्तों का अहसास ही नहीं रह गया है। रिश्तों का मापदंड अर्थ हो गया है। जिस माता पिता के कारण मनुष्य धरती पर आता है, उसी के साथ अमानवीय व्यवहार की खबरें दिनों-दिन देखने को मिल रही है। जिस मां ने नौ महीने तक पेट में रखने के बाद खुद गीले मे सोकर बेटे को सूखे मे सुलाया। जिस पिता के कंधो पर बैठकर बेटा बड़ा हुआ व बेटे के सपने पूरे करने में खुद को भट्ठी बना लिया, उस माता पिता के साथ ऐसा व्यवहार देखकर रूह कांप जाती है। एक खबर झुंझुनूं जिले के मुकुंदगढ़ जिले की है कि 80 वर्षीय रामसुख दर्जी व उसकी 75 वर्षीय धर्मपत्नी ने अकेलेपन व बीमारी से तंग आकर आत्महत्या कर ली। उनके तीन बेटे थे, जो जयपुर व बैंगलोर रहते है लेकिन माता पिता का मातृरूप इसी से परिलक्षित होता है कि उन्होंने सुसाइड नोट में लिखा कि उन्होंने आत्महत्या अपनी मर्जी से की है, उनके बेटों को परेशान न किया जाए। अब सवाल यह उठता है कि उनकी मौत में क्या उन तीनों बेटो का कोई दोष नहीं था। क्या उन तीनो बेटों के लिए शर्मसार करने वाली घटना नहीं थी कि जन्म देने वाले माता पिता को अपने सुख के लिए अकेले व तन्हाई में छोड़ दिया। तीन तीन बेटो के माता पिता जब आत्महत्या करने को मजबूर हो जाए तो इससे समाज की दुर्दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस भौतिकतावादी युग ने सनातनी संस्कृति का भक्षण कर लिया है। मदर्स डे मनाते हैं और स्टेटस लगाते हैं और माता पिता वृद्धाश्रम की शान बढ़ा रहे हैं।
मानवता व मानवीय मूल्यों को शर्मसार करने वाली दूसरी घटना भी उस राजस्थान की ही है, जहां पन्नाधाय जैसी मां ने सीने पर पत्थर रख लिया था। यह वह वीरों की धरती है, जो देश पर जान न्योछावर करने वाले बेटो को जन्म देती है। उसी मिट्टी को शर्मसार किया है कोटपूतली बहरोड़ के लीला का बास ढाणी की एक घटना ने। गांव की भंवरी देवी के सात बेटे थे। भंवरी की मृत्यु हो जाने पर उसके पांच नंबर के बेटे ने यह कहकर कोहराम नहीं मचाया कि आज उसको जन्म देने वाली इस संसार से चली गई बल्कि यह कहकर कोहराम मचाया कि उसकी मां का माल भाईयो ने हड़प लिया है। इसलिए कम से कम उसके पैरों की चांदी के कड़े तो दिए जाएं। यह कहकर वह खुद चिता पर लेट गया और बोला कि जब तक चांदी के कड़े नहीं मिलेंगे तब तक दाह संस्कार नहीं होने दूंगा। गांव के लोगों ने उस कलियुग के बेटे के लिए चांदी के कड़ो का इंतजाम किया तत्पश्चात दाह संस्कार करने दिया। यह घटनाएं तो दो ही है। आज जिस तरह से संयुक्त परिवारों का विखंडन हुआ है तभी से समाज में संस्कार विलुप्त होते चले गये है। बुढापे में माता-पिता को दो वक्त की रोटी ही नहीं बल्कि उनके पास बैठकर केवल यही पूछना कि आप कैसे हैं, खाना खाया कि नहीं, किसी वस्तु की जरूरत है तो बताए कल आफिस से आते वक्त लेता आऊंगा। यह शब्द माता पिता की जिंदगी बढ़ाते ही नहीं बल्कि गूलजार बना देते हैं लेकिन रिश्तों पर अर्थ की धूल जमने से समाज में संस्कारों के पतन की पराकाष्ठा के रूप में ऐसी घटनाएं देखने को मिलती रहेगी।