मस्तक मेरे पाँव धर, मंदिर, माँहीं आव। सँइयां सोवे सेज पर, दादू चंपै पाँव॥२७६॥ संतप्रवर महर्षि श्रीदादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि जब परस्पर प्रेमपाशाबद्ध हो भक्त और भगवान प्रेम भाव का अतिक्रमण कर दोनों ही एकात्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं, तब चारों दिशाओं में शरीर और मन में आध्यात्मिक मंगल उदय होता है। उस समय मै भी उपास्य उपासक भावजन्य एवं अभेद आनंद का अनुभव करता हूं।
हे भगवन् ! आप अपने चरणकमलों को मेरे शिर पर रख, मेरा अहंकार दूर करते हुए मेरे ह्रदय मन्दिर में आकर विराजें, क्योंकि आपके चरणकमलों के स्पर्श से मेरा अहंकार नष्ट हो कर मैं आपके दर्शनों के योग्य हो जाऊंगा। वहाँ आप निर्मल एवं कोमल हृदय शैय्या पर विराजमान होकर सुषुप्तिसुख का अनुभव करें। जिससे मुझे सर्वदा दर्शन होते रहे और मैं आपके चरणकमल दबाता हुआ आपके मुखकमल का दर्शन भी करता रहूँ। भक्तिरसायन ग्रन्थ में लिखा है - “बहुत से भक्त भगवान् के चरणकमलों की सेवा के लिये रहते हैं। अतः स्त्री होने के कारण, मेरा वहाँ रहना उचित नहीं किन्तु मखारविन्द का दर्शन करने के लिये मेरी वृत्ति सदा वहीं लगी रहे अर्थात् चरणारविन्द का स्पर्श एवं मुखारविन्द का दर्शन होता रहे। "आपके यहाँ आने से आपके दर्शनों से मुझे परमानन्द की प्राप्ति हो गयी। परंतु पहले आपने हमारे साथ धोखा किया था और अकस्मात् चले गये। अतः हमारा मन अब आपके प्रति शंकालु है, कहीं आप फिर न चुपचाप चले जाँय। अतः आप यदि निष्कपट हैं तो शीघ्र ही आकर हमें पुनः आश्वासन दें कि अब मैं कहीं नहीं जाऊंगा।” ऐसा कहते-कहते भक्त ने भगवान को को अपने नेत्रद्वार से ह्रदयमन्दिर में भेज दिया।" यद्यपि भगवान् के सर्वव्यापक होने के कारण भक्तों को भगवद्दर्शन सर्वत्र हो सकता है, फिर भी मन में शङ्का बनी हुई है कि क्या मालूम, मुझे छोड़कर किस अन्य भक्त को दर्शन देने हेतु अन्यत्र चले जाये। अतः मैं भगवान् को अपने हृदय में छिपा कर बैठा लूँ कि वे कहीं अन्यत्र जा ही न सकें।