*धार्मिक उपदेश: धर्म कर्म*
जब मैं साँचे की सुधि पाई। तब तैं अंग और नहीं आवै, देखत हूँ सुखदाई॥टेक॥ ता दिन तैं तन ताप न व्यापै, सुख दुख संग न जाऊँ। पावन पीव परस पद लीन्हा, आनंद भर गुन गाऊँ॥१॥सब सौं संग नहीं पुनि मेरे, अरस परस कुछ नाँहीं हीं। एक अनंत सोई संग मेरे, निरखत हूँ निज मांहीं॥२॥ तन मन मांहिं शोध सो लीन्हा, निरखत हूँ निज सारा। सोई संग सबै सुखदाई, दादू भाग्य हमारा॥३॥ जब से मैंने सत्य ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त किया तब से मेरे अन्तःकरण में ब्रह्म से भिन्न कोई विचार आते ही नहीं प्रत्युत सुख देने वाले उस ब्रह्म को ही सर्वत्र देखता हूँ। भेद ज्ञानजन्य विरह व्यथा भी मुझे नहीं सताती किन्तु मैं तो सुख दुःख रहित तथा संयोग वियोग रहित हो गया हूँ। परमप्रिय परमात्मा के चरणकमलों का स्पर्श करके आनन्द में डूबा रहता हूँ तथा उसी का गुणानुवाद गाता रहता हूँ। शरीर दृष्टि से यद्यपि मेरा शिष्यों के साथ सभी व्यवहार ज्ञानी की तरह असंग बुद्धि से हो रहा है तथापि मुझे सर्वत्र आत्मा ही भास रहा है। मेरा आत्मा तो परमात्मा से अभिन्न हो गया अतः थोड़ा सा भी भेद शेष नहीं रहा, जो अद्वैत अनन्त ब्रह्म है वह ही मेरा संगी है। वह ही मुझे अन्तःकरण में प्रतीत हो रहा है। जो विश्व का सारभूत सबके साथ रहने वाला सबको सुख देने वाला है, उसी को सब में मैं देख रहा हूँ। अहो मेरा बड़ा भाग है कि जो मैंने ब्रह्म को जान लिया, जो सब जगह पर है परन्तु अज्ञानियों को अज्ञान के कारण नहीं दीखता। योगवासिष्ठ में कहा है कि –ऐसा कोई स्थान नहीं जहां मैं नहीं रहता हूँ और ऐसा भी कोई नहीं जो मेरा न हो। ऐसी विचारधारा ज्ञानियों को हुआ करती है क्योंकि उनकी बुद्धि परिच्छेद से रहित समदर्शिनी हुआ करती है ।
सर्वोपनिषद्सारसंग्रह में –जो सबका अधिष्ठान सत्यस्वरूप निर्विकल्प चिदात्मा में सर्वत्र स्नेह रहित जीता है वह जीवन्मुक्त होता है । जो सब भूतों में समत्व भाव रखता है उसी का जीवन सुशोभित होता है। वह व्यवहार करे या न करे वह सदा ही जीवन्मुक्त हैं।