बार बार तन नहीं वावरे, काहे को बाद गँवावै रे। बिनसत बार कछू नहिं लागै, बहुरि कहाँ को पावै रे॥टेक॥ तेरे भाग बड़े भाव धर कीन्हाँ, क्यों कर चित्र बनावै रे। सो तूँ लेइ विषय में डारे, कंचन छार मिलावै रे॥१॥ तूँ मत जानै बहुरि पाइये, अब कै जनि डहिकावै रे। तीनि लोक की पूँजी तेरे, बनिज बेगि सो आवै रे॥२॥
जब लग घट मैं श्वास वास है, तब लग काहे न ध्यावै रे।
दादू तन धर नाम न लीन्हा, सो प्राणी पछतावै रे॥३॥ हे मानव ! यह मानव जन्म बार-बार नहीं मिलता क्योंकि यह दुर्लभ है। अनेक जन्मों के पुण्य से प्राप्त होने वाले इस देह को विषयों में नष्ट मत कर क्योंकि विषय भोग तो सब योनियों में मिल जाता है। यह शरीर तो क्षण भंगुर है, इसके नष्ट होने में कोई देरी नहीं लगेगी। तेरे पूर्वजन्म के पुन्यपुंज से ही प्रभु ने तेरे को यह शरीर दिया है।
हे मानव तेरी बड़ी मूर्खता है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को देने वाले इस दुर्लभ शरीर को तूं विषयों में नष्ट कर रहा है। जैसे कोई मूर्ख सुवर्ण को भस्म में मिलाता हो। क्या तू यह जानता है कि यह मनुष्य शरीर फिर मिलेगा। इस शरीर को बार-बार कोई भी प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिये विषय वासना को छोड़कर हरिभजन कर क्योंकि हरिभजन से तो त्रैलोक्य का साम्राज्य भी प्राप्त हो सकता है।
जल्दी कर जब तक प्राणों का अन्त नहीं होता, उससे पहले ही हरिभक्ति में तल्लीन हो जा। वसिष्ठ ने लिखा है कि यह बाल्यावस्था विविध प्रकार कल्पित क्रीडा कौतुक में ही बीत जाती है। युवा अवस्था आने पर मनरूपी मृग स्त्रीरूपिणी गुफाओं में ही रमता हुआ क्षीण हो जाता है। फिर वृद्धावस्था आने पर जब यह शरीर जीर्ण हो जाता है, उस समय मानव दुःख ही दुःख भोगता रहता है। अतः हरि भजन ही मनुष्य जन्म का लक्ष्य होना चाहिये। वृद्धावस्था रूप बर्फ से नष्ट शरीररूपी कमलिनी को क्षणभर में यह जीवरुपी भौंरा छोड़कर चला जायेगा तब इस जीव का संसाररूपी तालाब भी सूख जायेगा।