मना, जप राम नाम कहिये। राम नाम मन विश्राम, संगी सो गहिये।। जाग जाग सोवे कहा, काल कंध तेरे। बारम्बार कर पुकार, आवत दिन नेरे॥१॥
सोवत सोवत जन्म बीते, अजहूँ न जीव जागे। राम सँभार नींद निवार, जन्म जुरा लागे॥२॥
आस पास भरम बँध्यो, नारी गृह मेरा। अंत काल छाड़ चल्यो, कोई नहिं तेरा॥३॥ तज काम क्रोध मोह माया, राम राम करणा।
जब लग जीव प्राण पिंड, दादू गहि शरणा॥४॥ हे मन ! तू अपनी बुद्धि को भगवत्परायण करके राम नाम को जप, क्योंकि तेरे लिये शान्ति देने वाला साधन राम ही है और राम ही तेरे सच्चे संगी हैं। उसकी ही शरण में जाओ। अब तो तुम मोह निद्रा से जागो क्योंकि तेरे को काल ने ग्रस लिया है, संसार-बंधनसे मुक्त होने के लिये बार-बार में भगवान् से प्रार्थना कर। तेरी मृत्यु का समय भी नजदीक ही है। बहुत समय से सोते-सोते तुमने अपना समय खो दिया है, अब भी नहीं जाग रहा है। अतः इस जन्म में तो मोहनिद्रा को त्यागकर हरि का भजन कर। देख तो सही तेरी बृद्धावस्था आ गई है और वह प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। भ्रम के कारण ही तू स्त्री, पुत्र, धन आदि को अपना मान रहा है। अन्त समय में इन सबको अवश्य ही त्याग कर जाना होगा, इन में तेरे एक भी नहीं होगा। अतः जब तक यह जीव इस शरीर को छोड़कर नहीं जाता, उससे पहले ही भगवान् की शरण जाकर काम-क्रोधादिक शत्रुओं को जीतकर हरि का स्मरण आकर ले। वसिष्ठ में लिखा है कि –
जैसे सर्प वायु को पीता है, वैसे ही यह क्रूर आचरण करने वाला काल तरुण शरीर को बुढ़ापे में पहुँचाकर समस्त प्राणियों को निरन्तर अपना ग्रास बनाता रहता है। यह काल निर्दयों का सम्राट् है। वह किसी भी आर्त प्राणी पर दया नहीं करता। सम्पूर्ण भूतों पर दया वाला उदार पुरुष तो इस संसार में दुर्लभ हो गया। हे मुने ! जगत् में जितनी भी प्राणियों की जातियाँ हैं, उस सबका वैभव अल्प एवं तुच्छ है तथा जितने भी भोग के स्थान हैं, वे सभी भयंकर और परिणाम में अनन्त दुःख को देने वाले हैं। ऐसा विचार कर हरिभजन ही सबको करना चाहिये।