हमारे धर्म ग्रंथ और कथावाचक, भारत के प्राचीन पराक्रमी नायकों को संहार से परिपूर्ण हिंसक घटनाओं को तो खूब सुनाते हैं परन्तु उनके समाज सुधार से जुड़े जो क्रान्तिकारी सरोकार थे, उन्हें नजरंदाज कर देते हैं। भगवान विष्णु के दशावतारों में से एक माने जाने वाले भगवान परशुराम के साथ कमोबेश यही हुआ। उनके आक्रोश व पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय विहीन करने को लेकर खूब प्रचारित कर वैमनस्य फैलाने का काम किया जाता रहा है। पिता की आज्ञा से मां रेणुका का सिर धड़ से अलग करने की घटना को भी एक आज्ञाकारी पुत्र के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है लेकिन एक ज्वलंत प्रश्न उठता है कि एक व्यक्ति केवल हिंसा की चरम सीमा तक पहुंच कर या हिंसा के बलबूते जननायक होकर लोकप्रिय होने के साथ ही अजर अमर बन जाता है। रामायण व महाभारत काल में सम्पूर्ण पृथ्वी पर क्षत्रिय राजाओं का राज था। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को अपना धनुष व आशीर्वाद देने वाले, कौरव नरेश धृतराष्ट्र को पांडवों से संधि की सलाह देने वाले, कर्ण को ब्रह्मास्त्र की शिक्षा देने वाले परशुराम ही थे। इन सब बातों से यह प्रतीत होता है कि भगवान परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे। भगवान परशुराम केवल आततायी क्षत्रिय राजाओं के प्रबल विरोधी थे। समाज-सुधार के रूप में भगवान परशुराम का योगदान अतुलनीय है व इसे कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। उन्होंने शूद्र माने जाने वाले दरिद्र नारायणो को शिक्षित कर उन्हें ब्राह्मण बनाया। जो दुराचारी, संस्कार विहीन व आचरण विहीन ब्राह्मण थे, उनका सामाजिक बहिष्कार किया। केरल, कोंकण व कच्छ क्षेत्र में समुद्र में डूबीं भूमि को बाहर निकाल कर कृषि योग्य बनाया। जिन शूद्रों को ब्राह्मण बनाया, उनका अक्षय तृतीया के दिन एक साथ हजारो युवक युवतियों को सामुहिक परिणय सूत्र में बांधने का काम किया। भगवान परशुराम द्वारा अक्षय तृतीया को सामुहिक विवाह किए जाने के कारण ही इस दिन विवाह का बिना किसी मुहूर्त के शुभ मुहूर्त माना जाता है। सही मायने में भगवान श्री परशुराम सामाजिक समरसता के पोषक थे, अतः भगवान परशुराम को सर्व समाज के देवता के रूप में भी देखा जा सकता है।
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